ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 142/ मन्त्र 7
अ॒पामि॒दं न्यय॑नं समु॒द्रस्य॑ नि॒वेश॑नम् । अ॒न्यं कृ॑णुष्वे॒तः पन्थां॒ तेन॑ याहि॒ वशाँ॒ अनु॑ ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒पाम् । इ॒दम् । नि॒ऽअय॑नम् । स॒मु॒द्रस्य॑ । नि॒ऽवेश॑नम् । अ॒न्यम् । कृ॒णु॒ष्व॒ । इ॒तः । पन्था॑म् । तेन॑ । या॒हि॒ । वशा॑न् । अनु॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अपामिदं न्ययनं समुद्रस्य निवेशनम् । अन्यं कृणुष्वेतः पन्थां तेन याहि वशाँ अनु ॥
स्वर रहित पद पाठअपाम् । इदम् । निऽअयनम् । समुद्रस्य । निऽवेशनम् । अन्यम् । कृणुष्व । इतः । पन्थाम् । तेन । याहि । वशान् । अनु ॥ १०.१४२.७
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 142; मन्त्र » 7
अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 30; मन्त्र » 7
अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 30; मन्त्र » 7
विषय - प्रेय मार्ग को छोड़कर, श्रेयो मार्ग का आक्रमण
पदार्थ -
[१] (इदम्) = हमारा यह शरीररूप गृह (अपाम्) = कर्मों का (न्ययनम्) = निश्चितरूप से निवास-स्थान हो। हम सदा क्रियाशील हों। समुद्रस्य [स+मुद्] आनन्दमय प्रभु का यह (निवेशनम्) = गृह बने । जहाँ क्रियाशीलता होती है, वहीं प्रभु का वास होता है । [२] (इतः) = यहाँ से (अन्यं पन्थाम्) = भिन्न मार्ग को (कृणुष्व) = तू बना । इस संसार का मार्ग 'प्रेय मार्ग' कहलाता है । उस मार्ग में 'शतायु पुत्र पौत्र, पशु - हिरण्य- भूमि, नृत्यगीतवाद्य, व दीर्घजीवन' हैं । वहाँ आनन्द ही आनन्द प्रतीत होता है । परन्तु इसमें न फँसकर हम श्रेय मार्ग को अपनानेवाले हों। इसी मार्ग में परमात्मदर्शन होता है, और वास्तविक आनन्द प्राप्त होता है । (तेन) = उस मार्ग से (वशान् अनु) = इन्द्रियों को वश में करने के अनुसार तू (याहि) = चल । इन्द्रियों को वश में करके तू श्रेय मार्ग पर चल और परमात्मदर्शन करनेवाला बन ।
भावार्थ - भावार्थ - हम क्रियाशील बनकर अपने इस शरीर को प्रभु का बनायें । प्रेय मार्ग को छोड़कर श्रेयो मार्ग को अपनायें। जितेन्द्रिय बनकर श्रेयो मार्ग पर ही चलें ।
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