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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 142 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 142/ मन्त्र 8
    ऋषिः - शार्ङ्गाः देवता - अग्निः छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    आय॑ने ते प॒राय॑णे॒ दूर्वा॑ रोहन्तु पु॒ष्पिणी॑: । ह्र॒दाश्च॑ पु॒ण्डरी॑काणि समु॒द्रस्य॑ गृ॒हा इ॒मे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ॒ऽअय॑ने । ते॒ । प॒रा॒ऽअय॑ने । दूर्वाः॑ । रो॒ह॒न्तु॒ । पु॒ष्पिणीः॑ । ह्र॒दाः । च॒ । पु॒ण्डरी॑काणि । स॒मु॒द्रस्य॑ । गृ॒हाः । इ॒मे ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आयने ते परायणे दूर्वा रोहन्तु पुष्पिणी: । ह्रदाश्च पुण्डरीकाणि समुद्रस्य गृहा इमे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आऽअयने । ते । पराऽअयने । दूर्वाः । रोहन्तु । पुष्पिणीः । ह्रदाः । च । पुण्डरीकाणि । समुद्रस्य । गृहाः । इमे ॥ १०.१४२.८

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 142; मन्त्र » 8
    अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 30; मन्त्र » 8

    पदार्थ -
    [१] (ते) = तेरे (आयने) = अन्दर आने के मार्ग पर तथा (परायणे) = बाहर जाने के मार्ग पर (पुष्पिणीः) = फूलोंवाली, खूब खिली हुई (दूर्वा:) = दूब (रोहन्तु) = उगें । अर्थात् तेरे हर्म्य में सौन्दर्य की कमी न हो। यहाँ दूर्वावाले भूमिभाग घर के सौन्दर्य का चित्रण करते हैं । (च) = और वहाँ (ह्रदाः) = जलाशय हों। ये जलाशय शान्ति के प्रतीक हैं । (पुण्डरीकाणि) = इस घर में कमल हों। ये कमल लक्ष्मी के प्रतीक हैं । [२] इस प्रकार सौन्दर्य शान्ति व लक्ष्मी के निवास स्थान होते हुए इमे ये (गृहाः) = घर (समुद्रस्य) = [स+मुद्] उस आनन्दमय प्रभु के बने रहें । इन घरों में लक्ष्मी हो, पर उस लक्ष्मी में हम आसक्त न हो जाएँ । लक्ष्मी में स्थित हों, लक्ष्मी के दास न बन जाएँ।

    भावार्थ - भावार्थ - हमारे घर 'सौन्दर्य, शान्ति व लक्ष्मी' के निवास हों, परन्तु इनमें हम प्रभु के उपासक बने रहें । लक्ष्मी में फँस न जाएँ । सम्पूर्ण सूक्त की मूल भावना यही है कि इस वासनामय जगत् में, लक्ष्मी में रहते हुए भी हम लक्ष्मी में न फँस जाएँ । यह लक्ष्मी में न फँसनेवाला व्यक्ति 'अत्रि' बनता है 'काम-क्रोध- लोभ' तीनों से ऊपर । विचारशील होने से यह 'सांख्य' है । यह प्राणापान की साधना करता हुआ कहता है कि-

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