ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 24/ मन्त्र 11
ऋषिः - गृत्समदः शौनकः
देवता - ब्रह्मणस्पतिः
छन्दः - निचृज्जगती
स्वरः - निषादः
योऽव॑रे वृ॒जने॑ वि॒श्वथा॑ वि॒भुर्म॒हामु॑ र॒ण्वः शव॑सा व॒वक्षि॑थ। स दे॒वो दे॒वान्प्रति॑ पप्रथे पृ॒थु विश्वेदु॒ ता प॑रि॒भूर्ब्रह्म॑ण॒स्पतिः॑॥
स्वर सहित पद पाठयः । अव॑रे । वृ॒जने॑ । वि॒श्वऽथा॑ । वि॒ऽभुः म॒हाम् । ऊँ॒ इति॑ । र॒ण्वः । शव॑सा । व॒वक्षि॑थ । सः । दे॒वः । दे॒वान् । प्रति॑ । प॒प्र॒थे॒ । पृ॒थु । विश्वा॑ । इत् । ऊँ॒ इति॑ । ता । प॒रि॒ऽभूः । ब्रह्म॑णः । पतिः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
योऽवरे वृजने विश्वथा विभुर्महामु रण्वः शवसा ववक्षिथ। स देवो देवान्प्रति पप्रथे पृथु विश्वेदु ता परिभूर्ब्रह्मणस्पतिः॥
स्वर रहित पद पाठयः। अवरे। वृजने। विश्वऽथा। विऽभुः महाम्। ऊँ इति। रण्वः। शवसा। ववक्षिथ। सः। देवः। देवान्। प्रति। पप्रथे। पृथु। विश्वा। इत्। ऊँ इति। ता। परिऽभूः। ब्रह्मणः। पतिः॥
ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 24; मन्त्र » 11
अष्टक » 2; अध्याय » 7; वर्ग » 3; मन्त्र » 1
अष्टक » 2; अध्याय » 7; वर्ग » 3; मन्त्र » 1
विषय - सर्वव्यापक प्रभु
पदार्थ -
१. (यः) = जो (अवरे) = इस अवर [Lower] निचले (वृजने) = [Moving] संसार में (विश्वथा विभुः) = सब प्रकार से व्याप्त है- इस ब्रह्माण्ड में जिसकी व्याप्ति से कोई भी स्थान खाली नहीं है । 'त्रिपादूर्ध्व उदैत् पुरुषः पादोऽस्येहाभवत् पुनः' इस मन्त्र भाग में कहा है कि यह सारा संसार परमेश्वर के इस अवर एक देश में स्थित है- उसका (त्रिपात्) = तो इस ब्रह्माण्ड से ऊपर ही है। इस अवर ब्रह्माण्ड में प्रभु सर्वत्र व्याप्त हैं । (उ) = निश्चय से वे प्रभु (महाम्) = महान् व महनीय [पूजनीय] हैं। (रण्वः) = वे रमणीय प्रभु शवसा बल से (ववक्षिथ) = बढ़े हुए हैं। अनन्त शक्तिसम्पन्न हैं । २. (सः) = वे (देवः) = प्रकाशमय प्रभु (देवान् प्रति) = सब देवों का लक्ष्य करके (पृथु पप्रथे) = खूब ही विस्तृत होते हैं । वस्तुतः इन सब देवों को वे महादेव ही देवत्व प्राप्त कराते हैं और (ब्रह्मणस्पतिः) = वे ज्ञान के स्वामी प्रभु (उ इत्) = निश्चित ही (ता) = उन (विश्वा) = सब प्राणियों को (परिभूः) = व्याप्त कर रहे हैं। सब प्राणियों में भी जो कुछ विभूति - श्री व ऊर्जित है वह सब उस प्रभु की व्याप्ति के कारण ही है। सब सूर्यादि देवों को देवत्व प्राप्त करानेवाले वे प्रभु हैं और सब प्राणियों को शक्ति प्राप्त करानेवाले वे ही हैं ।
भावार्थ - भावार्थ - प्रभु सर्वत्र व्याप्त हैं। देवों को देवत्व तथा प्राणियों को अमुक-अमुक शक्ति प्रभु ही प्राप्त करा रहे हैं ।
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