ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 40/ मन्त्र 7
ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा
देवता - इन्द्र:
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
अ॒भि द्यु॒म्नानि॑ व॒निन॒ इन्द्रं॑ सचन्ते॒ अक्षि॑ता। पी॒त्वी सोम॑स्य वावृधे॥
स्वर सहित पद पाठअ॒भि । द्यु॒म्नानि॑ । व॒निनः॑ । इन्द्र॑म् । स॒च॒न्ते॒ । अक्षि॑ता । पी॒त्वी । सोम॑स्य । व॒वृ॒धे॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अभि द्युम्नानि वनिन इन्द्रं सचन्ते अक्षिता। पीत्वी सोमस्य वावृधे॥
स्वर रहित पद पाठअभि। द्युम्नानि। वनिनः। इन्द्रम्। सचन्ते। अक्षिता। पीत्वी। सोमस्य। ववृधे॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 40; मन्त्र » 7
अष्टक » 3; अध्याय » 3; वर्ग » 2; मन्त्र » 2
अष्टक » 3; अध्याय » 3; वर्ग » 2; मन्त्र » 2
विषय - सोमरक्षण व सर्वाङ्गीण उन्नति
पदार्थ -
[१] (वनिनः) = उस सम्भजनीय [उपासनीय] प्रभु के (द्युम्नानि) = द्योतमान, अर्थात् ज्ञानाग्नि को दीप्त करनेवाले अक्षिता सब क्षयों से बचानेवाले ये सोमकण (इन्द्रम्) = जितेन्द्रिय पुरुष को (अभिसचन्ते) = प्राप्त होते हैं। प्रभु इसलिए उपासना के योग्य हैं कि प्रभु हमें उन सोमकणों को प्राप्त कराते हैं, जो कि हमारे जीवनों को ज्योतिर्मय बनाते हैं और हमें सब प्रकार के विनाशों से बचाते हैं। [२] यह इन्द्र [जितेन्द्रिय पुरुष] (सोमस्य पीत्वी) = सोम का पान करके (वावृधे) = अत्यन्त ही वृद्धि को प्राप्त करता है। सोम उसकी सब प्रकार की उन्नतियों का मूल बनता है।
भावार्थ - भावार्थ- सोमरक्षण से मनुष्य सर्वांगीण उन्नति करनेवाला होता हैं।
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