ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 40/ मन्त्र 8
ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा
देवता - इन्द्र:
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
अ॒र्वा॒वतो॑ न॒ आ ग॑हि परा॒वत॑श्च वृत्रहन्। इ॒मा जु॑षस्व नो॒ गिरः॑॥
स्वर सहित पद पाठअ॒र्वा॒ऽवतः॑ । नः॒ । आ । ग॒हि॒ । प॒रा॒ऽवतः॑ । च॒ । वृ॒त्र॒ह॒न् । इ॒माः । जु॒ष॒स्व॒ । नः॒ । गिरः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अर्वावतो न आ गहि परावतश्च वृत्रहन्। इमा जुषस्व नो गिरः॥
स्वर रहित पद पाठअर्वाऽवतः। नः। आ। गहि। पराऽवतः। च। वृत्रहन्। इमाः। जुषस्व। नः। गिरः॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 40; मन्त्र » 8
अष्टक » 3; अध्याय » 3; वर्ग » 2; मन्त्र » 3
अष्टक » 3; अध्याय » 3; वर्ग » 2; मन्त्र » 3
विषय - प्रभु का आगमन
पदार्थ -
[१] हे (वृत्रहन्) = हमारी वासनाओं का विनाश करनेवाले प्रभो ! गतमन्त्रों के अनुसार सोमरक्षण के होने पर आप (अर्वावत:) = समीप देश से (परावतः च) = और दूरदेश से-जहाँ कहीं भी आप हों, (नः आगहि) = हमें प्राप्त होइये । वस्तुतः प्रभु सर्वव्यापक हैं, उनका समीप व दूर होना हमारे ज्ञान व अज्ञान के कारण से ही है। यह भाषा का प्रयोग ही है कि 'आप जहाँ कहीं भी हों, वहाँ से हमें प्राप्त होइये।' इस प्रकार का प्रयोग प्रभु की अज्ञेयता (अचिन्त्यता) का प्रतिपादन करता है। [२] हे प्रभो! आप (नः) = हमारी (इमाः) = इन (गिरः) = स्तुतिवाणियों को (जुषस्व) = प्रीतिपूर्वक सेवन करिए। हमारी ये वाणियाँ आपके लिए प्रिय हों- हमें ये आपका प्रीतिपात्र बनाएँ।
भावार्थ - भावार्थ- प्रभु का स्तवन करते हुए, वासना को विनष्ट करके हम प्रभु के प्रिय बनें ।
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