ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 40/ मन्त्र 9
ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा
देवता - इन्द्र:
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
यद॑न्त॒रा प॑रा॒वत॑मर्वा॒वतं॑ च हू॒यसे॑। इन्द्रे॒ह तत॒ आ ग॑हि॥
स्वर सहित पद पाठयत् । अ॒न्त॒रा । प॒रा॒वत॑म् । अ॒र्वा॒वत॑म् । च॒ । हू॒यसे॑ । इन्द्र॑ । इ॒ह । ततः॑ । आ । ग॒हि॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यदन्तरा परावतमर्वावतं च हूयसे। इन्द्रेह तत आ गहि॥
स्वर रहित पद पाठयत्। अन्तरा। परावतम्। अर्वावतम्। च। हूयसे। इन्द्र। इह। ततः। आ। गहि॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 40; मन्त्र » 9
अष्टक » 3; अध्याय » 3; वर्ग » 2; मन्त्र » 4
अष्टक » 3; अध्याय » 3; वर्ग » 2; मन्त्र » 4
विषय - हृदय में प्रभु का आराधन
पदार्थ -
[१] हे इन्द्र हमारे सब शत्रुओं का विद्रावण करनेवाले प्रभो ! (यत्) = जब (परावतम्) = सुदूर देश द्युलोक (च) = व (अर्वावतम्) = समीप देश इस पृथिवीलोक के (अन्तरा) = बीच में, अर्थात् मस्तिष्करूप द्युलोक व शरीररूप पृथिवीलोक के मध्य में हृदयान्तरिक्ष में हूयसे आप पुकारे जाते हैं, तो (इह) = यहाँ हमें (ततः) - तब (आगहि) = अवश्य प्राप्त होइये । [२] हृदय में प्रभु का आराधन करते हुए हम उस प्रभु का दर्शन करनेवाले हों। वस्तुतः प्रभु का दर्शन यहाँ हृदय में ही होता है। हृदय देश में आत्मा व परमात्मा दोनों का ही वास है। इसीलिए यह सर्वोत्तम देश [परम परार्ध] कहलाता है।
भावार्थ - भावार्थ- हृदय में प्रभु का आराधन करते हुए हम उस प्रभु का दर्शन करनेवाले बनें । सम्पूर्ण सूक्त उपासना को ही सोमरक्षण का साधन बताता है। इस रक्षित सोम से ही शक्ति व ज्ञान की वृद्धि को प्राप्त करके हम प्रभु का दर्शन करनेवाले बनते हैं। यही भाव अगले सूक्त में भी दर्शनीय है-
इस भाष्य को एडिट करें