ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 30/ मन्त्र 15
उ॒त दा॒सस्य॑ व॒र्चिनः॑ स॒हस्रा॑णि श॒ताव॑धीः। अधि॒ पञ्च॑ प्र॒धीँरि॑व ॥१५॥
स्वर सहित पद पाठउ॒त । दा॒सस्य॑ । व॒र्चिनः॑ । स॒हस्रा॑णि । श॒ता । अ॒व॒धीः॒ । अधि॑ । पञ्च॑ । प्र॒धीन्ऽइ॑व ॥
स्वर रहित मन्त्र
उत दासस्य वर्चिनः सहस्राणि शतावधीः। अधि पञ्च प्रधीँरिव ॥१५॥
स्वर रहित पद पाठउत। दासस्य। वर्चिनः। सहस्राणि। शता। अवधीः। अधि। पञ्च। प्रधीन्ऽइव ॥१५॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 30; मन्त्र » 15
अष्टक » 3; अध्याय » 6; वर्ग » 21; मन्त्र » 5
अष्टक » 3; अध्याय » 6; वर्ग » 21; मन्त्र » 5
विषय - 'वर्ची' के शतश: दुर्गों का संहार
पदार्थ -
[१] 'वर्चस्' शब्द शक्ति के लिये प्रयुक्त होता है। इस शक्ति का प्रयोग उत्तम मार्ग से करनेवाला 'वर्चस्वी' कहलाता है। इस शक्ति का दुरुपयोग करनेवाला 'वर्ची' हो जाता है। (उत) = और (दासस्य) = औरों का उपक्षय करनेवाली (वर्चिन:) = दुष्ट शक्तिवाली आसुर-भावना के पञ्चशता पाँच सौ अथवा (सहस्त्राणि) = हजारों रूपों को हे प्रभो! आप (अधि अवधी:) = आधिक्येन नष्ट करते हैं । [२] इस प्रकार इन्हें नष्ट करते हैं, (इव) = जैसे कि (प्रधीन्) = चक्र के चारों ओर स्थित शंकुओं को नष्ट करते हैं। आसुरभावनाएँ हमें ऐसे ही घेरे रखती हैं, जैसे कि चक्र को शंकु घेरे हुए होते हैं। ये आसुर भावनाएँ अत्यन्त प्रबल होती हैं। ये हमारे विनाश का कारण बनती हैं। प्रभुकृपा से ही इनका विनाश होता है ।
भावार्थ - भावार्थ- हम वर्चस्वी बनें, नकि वर्ची । हमारी शक्ति परपीड़न में विनियुक्त होती हुई आसुर न बन जाए।
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