ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 30/ मन्त्र 16
उ॒त त्यं पु॒त्रम॒ग्रुवः॒ परा॑वृक्तं श॒तक्र॑तुः। उ॒क्थेष्विन्द्र॒ आभ॑जत् ॥१६॥
स्वर सहित पद पाठउ॒त । त्यम् । पु॒त्रम् । अ॒ग्रुवः॑ । परा॑ऽवृक्तम् । श॒तऽक्र॑तुः । उ॒क्थेषु॑ । इन्द्रः॑ । आ । अ॒भ॒ज॒त् ॥
स्वर रहित मन्त्र
उत त्यं पुत्रमग्रुवः परावृक्तं शतक्रतुः। उक्थेष्विन्द्र आभजत् ॥१६॥
स्वर रहित पद पाठउत। त्यम्। पुत्रम्। अग्रुवः। पराऽवृक्तम्। शतऽक्रतुः। उक्थेषु। इन्द्रः। आ। अभजत् ॥१६॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 30; मन्त्र » 16
अष्टक » 3; अध्याय » 6; वर्ग » 22; मन्त्र » 1
अष्टक » 3; अध्याय » 6; वर्ग » 22; मन्त्र » 1
विषय - प्रभु उपासना से 'परावृक्त' बनना
पदार्थ -
[१] जैसे भिक्षु आदि शब्दों में 'उ' प्रत्यय है, इसी प्रकार 'अग्रु' में भी यही प्रत्यय है। स्त्रीलिंग में 'ऊङ्' प्रत्यय आकर 'अग्रू' हो जाता है। निरन्तर प्रगतिशील व्यक्ति 'अग्रु' है । इसका पुत्र, अर्थात् अत्यन्त प्रगतिशील यहाँ 'अग्रुवः पुत्रम्' कहा गया है। (शतक्रतुः) = अनन्त प्रज्ञानों व कर्मोंवाले (इन्द्रः) = परमैश्वर्यशाली प्रभु (उत) = निश्चय से (त्यम्) = उस (अग्रुवः पुत्रम्) = अत्यन्त प्रगतिशील (परावृक्तम्) = व्यसनों से रहित [वृजी वर्जने] व्यक्ति को उक्थेषु स्तोत्रों में आभजत् भागी करते हैं। इसे स्तोत्रों की ओर झुकाववाला बनाते हैं । [२] वस्तुतः प्रभु-स्तवन की ओर झुकाव ही इसे प्रगतिशील व व्यसनों में न फँसा हुआ बनाता है। शतक्रतु प्रभु की उपासना से हमारा जीवन भी यज्ञमय बनता है, स्वभावतः हम व्यसनों से बच जाते हैं। व्यसनों से बचना हमारी प्रगति का कारण बनता है।
भावार्थ - भावार्थ- प्रभु की उपासना से हम व्यसनों से बचकर निरन्तर प्रगतिपथ पर आगे बढ़ते हैं।
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