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ऋग्वेद मण्डल - 4 के सूक्त 30 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 30/ मन्त्र 19
    ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    अनु॒ द्वा ज॑हि॒ता न॑यो॒ऽन्धं श्रो॒णं च॑ वृत्रहन्। न तत्ते॑ सु॒म्नमष्ट॑वे ॥१९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अनु॑ । द्वा । ज॒हि॒ता । न॒यः॒ । अ॒न्धम् । श्रो॒णम् । च॒ । वृ॒त्र॒ऽह॒न् । न । तत् । ते॒ । सु॒म्नम् । अष्ट॑वे ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अनु द्वा जहिता नयोऽन्धं श्रोणं च वृत्रहन्। न तत्ते सुम्नमष्टवे ॥१९॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अनु। द्वा। जहिता। नयः। अन्धम्। श्रोणम्। च। वृत्रऽहन्। न। तत्। ते। सुम्नम्। अष्टवे ॥१९॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 30; मन्त्र » 19
    अष्टक » 3; अध्याय » 6; वर्ग » 22; मन्त्र » 4

    पदार्थ -
    [१] हे (वृत्रहन्) = सब वासनाओं को विनष्ट करनेवाले प्रभो ! (अन्धम्) = जिसकी ज्ञानेन्द्रियाँ ठीक काम नहीं करतीं और अतएव जो मार्ग को नहीं देख पाता (च) = तथा (श्रोणम्) = लंगड़े को जिसकी कर्मेन्द्रियाँ ठीक काम नहीं करतीं और अतएव जो मार्ग पर नहीं चल पाता, उन (द्वा) = दोनों को ही (जहिता) = जो धर्ममार्ग से व्यक्त हो गये हैं, उन्हें आप (अनुनयः) = ज्ञान और शक्ति देकर अनुकूलता से मार्ग पर आगे ले चलते हैं। प्रभु अन्धे को मानो आँखें दे देते हैं, लंगड़े को चलने की शक्ति प्राप्त करा देते हैं। [२] ते आपका (तत्) = वह (सुम्नम्) = आनन्द [happiness] व रक्षण [protection] (अष्टवे न) = व्याप्त करने के लिए नहीं होता। आपके अतिरिक्त इस आनन्द व रक्षण को कोई और नहीं प्राप्त करा सकता।

    भावार्थ - भावार्थ– प्रभु हमें उत्कृष्ट ज्ञानेन्द्रियाँ व कर्मेन्द्रियाँ प्राप्त कराके अनुकूलता से धर्ममार्ग पर ले चलते हुए अद्भुत सुख प्राप्त कराते हैं।

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