ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 30/ मन्त्र 19
अनु॒ द्वा ज॑हि॒ता न॑यो॒ऽन्धं श्रो॒णं च॑ वृत्रहन्। न तत्ते॑ सु॒म्नमष्ट॑वे ॥१९॥
स्वर सहित पद पाठअनु॑ । द्वा । ज॒हि॒ता । न॒यः॒ । अ॒न्धम् । श्रो॒णम् । च॒ । वृ॒त्र॒ऽह॒न् । न । तत् । ते॒ । सु॒म्नम् । अष्ट॑वे ॥
स्वर रहित मन्त्र
अनु द्वा जहिता नयोऽन्धं श्रोणं च वृत्रहन्। न तत्ते सुम्नमष्टवे ॥१९॥
स्वर रहित पद पाठअनु। द्वा। जहिता। नयः। अन्धम्। श्रोणम्। च। वृत्रऽहन्। न। तत्। ते। सुम्नम्। अष्टवे ॥१९॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 30; मन्त्र » 19
अष्टक » 3; अध्याय » 6; वर्ग » 22; मन्त्र » 4
अष्टक » 3; अध्याय » 6; वर्ग » 22; मन्त्र » 4
विषय - 'अन्ध व श्रोण' का नीरोग होना
पदार्थ -
[१] हे (वृत्रहन्) = सब वासनाओं को विनष्ट करनेवाले प्रभो ! (अन्धम्) = जिसकी ज्ञानेन्द्रियाँ ठीक काम नहीं करतीं और अतएव जो मार्ग को नहीं देख पाता (च) = तथा (श्रोणम्) = लंगड़े को जिसकी कर्मेन्द्रियाँ ठीक काम नहीं करतीं और अतएव जो मार्ग पर नहीं चल पाता, उन (द्वा) = दोनों को ही (जहिता) = जो धर्ममार्ग से व्यक्त हो गये हैं, उन्हें आप (अनुनयः) = ज्ञान और शक्ति देकर अनुकूलता से मार्ग पर आगे ले चलते हैं। प्रभु अन्धे को मानो आँखें दे देते हैं, लंगड़े को चलने की शक्ति प्राप्त करा देते हैं। [२] ते आपका (तत्) = वह (सुम्नम्) = आनन्द [happiness] व रक्षण [protection] (अष्टवे न) = व्याप्त करने के लिए नहीं होता। आपके अतिरिक्त इस आनन्द व रक्षण को कोई और नहीं प्राप्त करा सकता।
भावार्थ - भावार्थ– प्रभु हमें उत्कृष्ट ज्ञानेन्द्रियाँ व कर्मेन्द्रियाँ प्राप्त कराके अनुकूलता से धर्ममार्ग पर ले चलते हुए अद्भुत सुख प्राप्त कराते हैं।
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