ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 30/ मन्त्र 20
ऋषिः - वामदेवो गौतमः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - पिपीलिकामध्यागायत्री
स्वरः - षड्जः
श॒तम॑श्म॒न्मयी॑नां पु॒रामिन्द्रो॒ व्या॑स्यत्। दिवो॑दासाय दा॒शुषे॑ ॥२०॥
स्वर सहित पद पाठश॒तम् । अ॒श्म॒न्ऽमयी॑नाम् । पु॒राम् । इन्द्रः॑ । वि । आ॒स्य॒त् । दिवः॑ऽदासाय । दा॒शुषे॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
शतमश्मन्मयीनां पुरामिन्द्रो व्यास्यत्। दिवोदासाय दाशुषे ॥२०॥
स्वर रहित पद पाठशतम्। अश्मन्ऽमयीनाम्। पुराम्। इन्द्रः। वि। आस्यत्। दिवःऽदासाय। दाशुषे ॥२०॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 30; मन्त्र » 20
अष्टक » 3; अध्याय » 6; वर्ग » 22; मन्त्र » 5
अष्टक » 3; अध्याय » 6; वर्ग » 22; मन्त्र » 5
विषय - 'दिवोदास-दाश्वान्' के लिये पुरों का विदारण
पदार्थ -
[१] (इन्द्रः) = सब शत्रुओं का संहार करनेवाले प्रभु (अश्मन्मयीनाम्) = पत्थरों से बनी हुई, अत्यन्त दृढ़ पुराम् शत्रुनगरियों के (शतम्) = सैकड़े को (व्यास्यत्) = परे फेंकते हैं नष्ट करते हैं प्रभुकृपा से ही इन 'काम क्रोध-लोभ' की नगरियों का विध्वंस होता है। [२] पर प्रभु यह शत्रुनगरियों का विध्वंस ('दिवोदासाय') = ज्ञान के दास [भक्त] के लिए करते हैं, उसके लिए करते हैं, जो कि (दाशुषे) = दाश्वान् है देने की वृत्तिबाला है। हम ज्ञानी बनने का प्रयत्न करें, त्याग की वृत्तिवाले हों, तभी प्रभु हमारे शत्रुओं का विध्वंस करेंगे।
भावार्थ - भावार्थ- हम ज्ञानप्रवण व दानशील बनें । प्रभु हमारे शत्रुओं का विध्वंस करेंगे।
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