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ऋग्वेद मण्डल - 4 के सूक्त 30 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 30/ मन्त्र 22
    ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - इन्द्र: छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    स घेदु॒तासि॑ वृत्रहन्त्समा॒न इ॑न्द्र॒ गोप॑तिः। यस्ता विश्वा॑नि चिच्यु॒षे ॥२२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सः । घ॒ । इत् । उ॒त । अ॒सि॒ । वृ॒त्र॒ऽह॒न् । स॒मा॒नः । इ॒न्द्र॒ । गोऽप॑तिः । यः । ता । विश्वा॑नि । चि॒च्यु॒षे ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स घेदुतासि वृत्रहन्त्समान इन्द्र गोपतिः। यस्ता विश्वानि चिच्युषे ॥२२॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सः। घ। इत्। उत। असि। वृत्रऽहन्। समानः। इन्द्र। गोऽपतिः। यः। ता। विश्वानि। चिच्युषे ॥२२॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 30; मन्त्र » 22
    अष्टक » 3; अध्याय » 6; वर्ग » 23; मन्त्र » 2

    पदार्थ -
    [१] हे (इन्द्र) = सब शत्रुओं का प्रच्यावन करनेवाले प्रभो ! (उत) = और (सः) = वे आप (घा इत्) = निश्चय से (समान:) = [सम् आनयति] हमें सम्यक् प्राणित करनेवाले हैं। हे (वृत्रहन्) = हमारी सब वासनाओं के विनष्ट करनेवाले प्रभो! आप ही (गो पति:) = हमारी सब इन्द्रियों के रक्षक हो । वासना के विनाश से ही तो इन्द्रियों की शक्ति का रक्षण होता है। [२] आप वे हैं, (यः) = जो (ता विश्वानि) = उन सब शत्रुओं को (चिच्युषे) = प्रच्यावित करते हैं। आपकी शक्ति व प्रेरणा से ही इन शत्रुओं का विनाश हुआ करता है ।

    भावार्थ - भावार्थ- प्रभु ही हमें प्राणित करके काम आदि शत्रुओं का पराजय कराते हैं।

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