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ऋग्वेद मण्डल - 4 के सूक्त 30 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 30/ मन्त्र 23
    ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    उ॒त नू॒नं यदि॑न्द्रि॒यं क॑रि॒ष्या इ॑न्द्र॒ पौंस्य॑म्। अ॒द्या नकि॒ष्टदामि॑नत् ॥२३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒त । नू॒नम् । यत् । इ॒न्द्रि॒यम् । क॒रि॒ष्याः । इ॒न्द्र॒ । पौंस्य॑म् । अ॒द्य । नकिः॑ । टत् । आ । मि॒न॒त् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उत नूनं यदिन्द्रियं करिष्या इन्द्र पौंस्यम्। अद्या नकिष्टदामिनत् ॥२३॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत। नूनम्। यत्। इन्द्रियम्। करिष्याः। इन्द्र। पौंस्यम्। अद्य। नकिः। तत्। आ। मिनत् ॥२३॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 30; मन्त्र » 23
    अष्टक » 3; अध्याय » 6; वर्ग » 23; मन्त्र » 3

    पदार्थ -
    [१] हे (इन्द्र) = शत्रुओं का संहार करनेवाले प्रभो! (उत) = और (नूनम्) = निश्चय से (यत्) = जो (पौंस्यम्) = [पू] सब पवित्रताओं के करनेवाले (इन्द्रियम्) = [वीर्य] बल को आप (करिष्या:) = हमारे लिए करते हैं। (तत्) = उस आपके बल को (अद्या) = अब (नकि: आमिनत्) = कोई भी हिंसित नहीं कर पाता। [२] प्रभु से हमें शक्ति प्राप्त होती है तो हम काम आदि शत्रुओं से फिर पराजित नहीं होते।

    भावार्थ - भावार्थ- हम प्रभु का उपासन करें। प्रभु हमें वह पवित्र बल प्राप्त कराएँगे, जो कि हमें शत्रुओं से पराजित न होने देगा।

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