ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 94/ मन्त्र 5
इष॒मूर्ज॑म॒भ्य१॒॑र्षाश्वं॒ गामु॒रु ज्योति॑: कृणुहि॒ मत्सि॑ दे॒वान् । विश्वा॑नि॒ हि सु॒षहा॒ तानि॒ तुभ्यं॒ पव॑मान॒ बाध॑से सोम॒ शत्रू॑न् ॥
स्वर सहित पद पाठइष॑म् । ऊर्ज॑म् । अ॒भि । अ॒र्ष॒ । अश्व॑म् । गाम् । उ॒रु । ज्योतिः॑ । कृ॒णु॒हि॒ । मत्सि॑ । दे॒वान् । विश्वा॑नि । हि । सु॒ऽसहा॑ । तानि॑ । तुभ्य॑म् । पव॑मान । बाध॑से । सो॒म॒ । शत्रू॑न् ॥
स्वर रहित मन्त्र
इषमूर्जमभ्य१र्षाश्वं गामुरु ज्योति: कृणुहि मत्सि देवान् । विश्वानि हि सुषहा तानि तुभ्यं पवमान बाधसे सोम शत्रून् ॥
स्वर रहित पद पाठइषम् । ऊर्जम् । अभि । अर्ष । अश्वम् । गाम् । उरु । ज्योतिः । कृणुहि । मत्सि । देवान् । विश्वानि । हि । सुऽसहा । तानि । तुभ्यम् । पवमान । बाधसे । सोम । शत्रून् ॥ ९.९४.५
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 94; मन्त्र » 5
अष्टक » 7; अध्याय » 4; वर्ग » 4; मन्त्र » 5
अष्टक » 7; अध्याय » 4; वर्ग » 4; मन्त्र » 5
विषय - उरु ज्योतिः
पदार्थ -
हे सोम ! (इषम्) = प्रभु की प्रेरणा को तथा उस प्रेरणा को क्रियान्वित करने के लिये (ऊर्जम्) = बल व प्राणशक्ति को (अभ्यर्षः) = प्राप्त करा । अश्वं कर्मेन्द्रियों को, (गाम्) = ज्ञानेन्द्रियों को प्राप्त करा । (उरु ज्योतिः कृणुहि) = विशाल प्रकाश को तू हमें प्राप्त करा । (देवान् मत्सि) = दिव्य गुणों से युक्त पुरुषों को तू आनन्दित कर । हे (पवमानः) = पवित्र करनेवाले सोम ! (तुभ्यम्) = तेरे लिये (विश्वानि हि तानि) = सब ही वे हमारे न चाहते हुए भी अन्दर घुस आनेवाले राक्षसी भाव (सुषहा) = सुगमता से कुचलने योग्य हैं । हे सोम ! तू उन (शत्रून्) = शत्रुओं को (बाधसे) = पीड़ित करता है। वस्तुतः सोमरक्षण के होने पर शरीर में रोग ही नहीं, राक्षसीभाव भी समाप्त हो जाते हैं ।
भावार्थ - भावार्थ- सोमरक्षण से हमें प्रभु प्रेरणा सुन पड़ती है, उस प्रेरणा को हम क्रियान्वित करने के लिये शक्ति को प्राप्त करते हैं । हमारी कर्मेन्द्रियाँ व ज्ञानेन्द्रियाँ उत्कृष्ट बनती हैं। विशाल ज्योति को प्राप्त करके हम देव बनते हैं। वासनाओं को कुचल पाते हैं । अगले सूक्त का ऋषि 'प्रस्कण्व' हैं, कण्वपुत्र, अर्थात् अत्यन्त मेधावी । यह कहता है-
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