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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 95 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 95/ मन्त्र 1
    ऋषिः - प्रस्कण्वः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    कनि॑क्रन्ति॒ हरि॒रा सृ॒ज्यमा॑न॒: सीद॒न्वन॑स्य ज॒ठर॑ऋ पुना॒नः । नृभि॑र्य॒तः कृ॑णुते नि॒र्णिजं॒ गा अतो॑ म॒तीर्ज॑नयत स्व॒धाभि॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    कनि॑क्रन्ति । हरिः॑ । आ । सृ॒ज्यमा॑नः । सीद॑न् । वन॑स्य । ज॒ठरे॑ । पु॒ना॒नः । नृऽभिः॑ । य॒तः । कृ॒णु॒ते॒ । निः॒ऽनिज॑म् । गाः । अतः॑ । म॒तीः । ज॒न॒य॒त॒ । स्व॒धाभिः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    कनिक्रन्ति हरिरा सृज्यमान: सीदन्वनस्य जठरऋ पुनानः । नृभिर्यतः कृणुते निर्णिजं गा अतो मतीर्जनयत स्वधाभि: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    कनिक्रन्ति । हरिः । आ । सृज्यमानः । सीदन् । वनस्य । जठरे । पुनानः । नृऽभिः । यतः । कृणुते । निःऽनिजम् । गाः । अतः । मतीः । जनयत । स्वधाभिः ॥ ९.९५.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 95; मन्त्र » 1
    अष्टक » 7; अध्याय » 4; वर्ग » 5; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    (आसृज्यमानः) = शरीर में चारों ओर उत्पन्न किया जाता हुआ (हरिः) = दुःखहर्ता सोम (कनिक्रन्ति) = प्रभु के स्तवन के शब्दों का उच्चारण करता है। शरीर में सुरक्षित सोम हमें प्रभुस्तवन की ओर झुकाता है । (पुनानः) = पवित्र किया जाता हुआ सोम (वनस्य) = उपासक के (जठरे) = उदर में (सीदन्) = स्थित होता है। अर्थात् वासनाओं के उबाल से शून्य यह सोम उपासक के शरीर में सुरक्षित रहता है। (नृभिः यतः) = उन्नतिपथ पर चलनेवाले लोगों से संयत किया हुआ सोम (निर्णिजम्) = शोधन व पोषण को तथा (गाः) = ज्ञान की वाणियों को कृणुते करता है। शरीर को यह पुष्ट बनाता है [पोषण], मन को शुद्ध करता है [शोधन] तथा मस्तिष्क को ज्ञान सम्पन्न बनाता है । (अतः) = इस सोम के द्वारा (स्वधाभिः) = आत्मधारणशक्तियों के साथ (मतीः जनयत) = प्रकृष्ट बुद्धियों को उत्पन्न करो ।

    भावार्थ - भावार्थ - शरीर में सुरक्षित सोम हमें पुष्ट शरीर वाला, शुद्ध मन वाला तथा ज्ञानदीप्त मस्तिष्क वाला बनाता है ।

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