ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 95/ मन्त्र 5
ऋषिः - प्रस्कण्वः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - पादनिचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
इष्य॒न्वाच॑मुपव॒क्तेव॒ होतु॑: पुना॒न इ॑न्दो॒ वि ष्या॑ मनी॒षाम् । इन्द्र॑श्च॒ यत्क्षय॑थ॒: सौभ॑गाय सु॒वीर्य॑स्य॒ पत॑यः स्याम ॥
स्वर सहित पद पाठइष्य॑न् । वाच॑म् । उ॒प॒व॒क्ताऽइ॑व । होतुः॑ । पु॒ना॒नः । इ॒न्दो॒ इति॑ । वि । स्य॒ । म॒नी॒षाम् । इन्द्रः॑ । च॒ । यत् । क्षय॑थः । सौभ॑गाय । सु॒ऽवीर्य॑स्य । पत॑यः । स्या॒म॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
इष्यन्वाचमुपवक्तेव होतु: पुनान इन्दो वि ष्या मनीषाम् । इन्द्रश्च यत्क्षयथ: सौभगाय सुवीर्यस्य पतयः स्याम ॥
स्वर रहित पद पाठइष्यन् । वाचम् । उपवक्ताऽइव । होतुः । पुनानः । इन्दो इति । वि । स्य । मनीषाम् । इन्द्रः । च । यत् । क्षयथः । सौभगाय । सुऽवीर्यस्य । पतयः । स्याम ॥ ९.९५.५
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 95; मन्त्र » 5
अष्टक » 7; अध्याय » 4; वर्ग » 5; मन्त्र » 5
अष्टक » 7; अध्याय » 4; वर्ग » 5; मन्त्र » 5
विषय - बुद्धि + सोभागाय + सुवीर्य
पदार्थ -
(उपवक्ता इव) = उपदेष्टा की तरह (होतुः) = उस सृष्टि यज्ञ के होता प्रभु की (वाचम्) = वाणी को (इष्यन्) = उपासक के रूप में प्रेरित करता हुआ (पुनानः) = पवित्र किया जाता हुआ तू हे (इन्दो) = सोम ! (मनीषां) = बुद्धि को (विष्या) = हमारे में प्राप्त करानेवाला, प्रतिबद्ध करनेवाला हो [विमुञ्च सा०] (यत्) = जिस समय तू (च) = और (इन्द्रः) = वह सब शत्रुओं का द्रावण करनेवाला प्रभु (क्षयथः) = मेरे में निवास करते हो, तो (सौभगाय) = सौभाग्य के लिये होते हो। हम सोम व इन्द्र की कृपा से (सुवीर्यस्य) = उत्तम शक्ति के (पतयः) = स्वामी स्याम हों ।
भावार्थ - भावार्थ- सुरक्षित सोम हमारे हृदयों में प्रभु की वाणी को प्रेरित करता है, बुद्धि को देता है, सौभाग्यवर्धन करता हुआ सुवीर्य का पति बनाता है । इस सुवीर्य के द्वारा शत्रुओं को पराजित करता हुआ 'प्रतर्दन' अगले सूक्त का ऋषि है, यह 'दैवोदासि' उस प्रभु का दास [भक्त] है। यह सोम शंसन करता हुआ कहता है ।
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