यजुर्वेद - अध्याय 23/ मन्त्र 38
ऋषिः - प्रजापतिर्ऋषिः
देवता - सभासदो देवताः
छन्दः - निचृत् त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
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कु॒विद॒ङ्ग यव॑मन्तो॒ यव॑ञ्चि॒द्यथा॒ दान्त्य॑नुपू॒र्वं वि॒यूय॑।इ॒हेहै॑षां कृणुहि॒ भोज॑नानि॒ ये ब॒र्हिषो॒ नम॑ऽउक्तिं॒ यज॑न्ति॥३८॥
स्वर सहित पद पाठकु॒वित्। अ॒ङ्ग। यव॑मन्त इति॒ यव॑ऽमन्तः। यव॑म्। चि॒त्। यथा॑। दान्ति॑। अ॒नु॒पू॒र्वमित्य॑नुऽपू॒र्वम्। वि॒यूयेति॑ वि॒ऽयूय॑। इ॒हेहेती॒हऽइ॑ह। ए॒षा॒म्। कृ॒णु॒हि॒। भोज॑नानि। ये। ब॒र्हिषः॑। नम॑ऽउक्ति॒मिति॒ नमः॑ऽउक्तिम्। यज॑न्ति ॥३८ ॥
स्वर रहित मन्त्र
कुविदङ्ग यवमन्तो वयञ्चिद्यथा दान्त्यनुपूर्वँवियूय । इहेहैषाङ्कृणुहि भोजनानि ये बर्हिषो नमऽउक्तिँयजन्ति ॥
स्वर रहित पद पाठ
कुवित्। अङ्ग। यवमन्त इति यवऽमन्तः। यवम्। चित्। यथा। दान्ति। अनुपूर्वमित्यनुऽपूर्वम्। वियूयेति विऽयूय। इहेहेतीहऽइह। एषाम्। कृणुहि। भोजनानि। ये। बर्हिषः। नमऽउक्तिमिति नमःऽउक्तिम्। यजन्ति॥३८॥
विषय - आत्मदेह-विवेक
पदार्थ -
१. गतमन्त्र के अनुसार घर के शान्त वातावरण में ही मनुष्य आध्यात्मिक दृष्टि से उन्नति कर सकता है। घर स्वर्ग बनेगा तो वहाँ देवों का निवास तो होगा ही। ये दिव्य वृत्तिवाले लोग (कुवित्) = खूब (अङ्ग) = शीघ्र ही, (यवमन्तः) = अच्छी कृषिवाले किसान (यव) = जौ को (चित्) = निश्चय से (यथा) = जैसे (अनुपूर्वम्) = क्रमशः एक ओर से (वियूय) = कुछ-कुछ अलग करके (दान्ति) = काटते चलते हैं, उसी प्रकार क्रमशः एक ओर से शुरू करके पहले अन्नमयकोश को, फिर प्राणमय, उसके बाद मनोमय, फिर विज्ञानमय व अन्त में आनन्दमय को अलग करके अन्तःस्थित आत्मतत्त्व का दर्शन करते हैं । २. इन साधकों में कोई अभी 'अन्नमयकोश' मैं नहीं हूँ, ऐसा ही निश्चय करने का प्रयत्न कर रहा होता है, कोई इससे ऊपर 'प्राणमयकोश मैं नहीं हूँ' ऐसा निश्चय कर चुका होता है। कोई मनोमय से ऊपर उठने का प्रयत्न कर रहा होता है तो कोई विज्ञानमय तक पहुँच रहा होता है। कोई एक आध सौभाग्यशाली साधक आनन्दमय तक पहुँच गया होता है और आत्मानन्द ले रहा होता है। हे प्रभो! आप (इह इह) = इस - इस स्थान में पहुँचे हुए इन सब अभियुक्त [साधना में लगे हुए] व्यक्तियों का (भोजनानि) = पालन (कृणुहि) = कीजिए। आप ही इनके योगक्षेम का ध्यान करते हैं। ३. आप उन सबके योगक्षेम को चलाते हैं (ये) = जो (बर्हिषः) = हृदय में से वासनाओं का उद्बर्हण करनेवाले लोग (नमउक्तिम्) = नमन के वचनों को, नम्रतापूर्ण स्तुति वचनों को (यजन्ति) = अपने साथ सङ्गत करते हैं। वस्तुतः प्रभु के प्रति नमन ही उन्हें वासनाओं को उन्मूलित करने में सहायक होता है। वासनाओं के विनष्ट होने पर पवित्र हृदय में प्रभु का दर्शन होता है।
भावार्थ - भावार्थ- एक-एक कोश को चिन्तनपूर्वक अलग करते हुए हम आत्मरूप को देख पाते हैं। इस आत्मरूप का दर्शन तभी होगा जब हम हृदय को वासनाशून्य बनाएँगे। हृदय की पवित्रता प्रभु के प्रति नमन से होगी ।
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