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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1401
ऋषिः - वसिष्ठो मैत्रावरुणिः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
काण्ड नाम -
1
स꣡मु꣢ प्रि꣣यो꣡ मृ꣢ज्यते꣣ सा꣢नौ꣣ अ꣡व्ये꣢ य꣣श꣡स्त꣢रो य꣣श꣢सां꣣ क्षै꣡तो꣢ अ꣣स्मे꣢ । अ꣣भि꣡ स्व꣢र꣣ ध꣡न्वा꣢ पू꣣य꣡मा꣢नो यू꣣यं꣡ पा꣢त स्व꣣स्ति꣢भिः꣣ स꣡दा꣢ नः ॥१४०१॥
स्वर सहित पद पाठस꣢म् । उ꣣ । प्रियः꣢ । मृ꣣ज्यते । सा꣡नौ꣢꣯ । अ꣡व्ये꣢꣯ । य꣣श꣡स्त꣢रः । य꣣श꣡सा꣢म् । क्षै꣡तः꣢꣯ । अ꣣स्मे꣢इति꣢ । अ꣣भि꣢ । स्व꣣र । ध꣡न्व꣢꣯ । पू꣣य꣡मा꣢नः । यू꣣य꣢म् । पा꣣त । स्व꣣स्ति꣡भिः꣢ । सु꣣ । अस्ति꣡भिः꣢꣯ । स꣡दा꣢꣯ । नः꣣ ॥१४०१॥
स्वर रहित मन्त्र
समु प्रियो मृज्यते सानौ अव्ये यशस्तरो यशसां क्षैतो अस्मे । अभि स्वर धन्वा पूयमानो यूयं पात स्वस्तिभिः सदा नः ॥१४०१॥
स्वर रहित पद पाठ
सम् । उ । प्रियः । मृज्यते । सानौ । अव्ये । यशस्तरः । यशसाम् । क्षैतः । अस्मेइति । अभि । स्वर । धन्व । पूयमानः । यूयम् । पात । स्वस्तिभिः । सु । अस्तिभिः । सदा । नः ॥१४०१॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1401
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 8; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 12; खण्ड » 3; सूक्त » 2; मन्त्र » 3
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 8; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 12; खण्ड » 3; सूक्त » 2; मन्त्र » 3
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विषय - प्रभु को प्रिय कौन ?
पदार्थ -
प्रभु कहते हैं कि (उ) = निश्चय से (संप्रियः) = वह जीव ही हमें प्रिय है, जो – १. (मृज्यते) = गत मन्त्र = में वर्णित सात बातों से शुद्ध कर दिया जाता है २. (अव्ये) = [अव-भागदुघ-प्रभु के गुणों को अपने में पूरण करना] प्रभु के गुणों को अपने में दोहने के सानो सानौ - शिखर पर होता है, अर्थात् अधिक-से-अधिक दिव्य गुणों का अपने में दोहन करता है । ३. (यशसां यशस्तरः) = इसी कारण जो यशस्वियों में भी यशस्वी बनता है । ४. जो (अस्मे क्षैतः) = [क] हमारी ओर गति कर रहा है [क्षिगति] प्रभु की ओर चल रहा है न कि प्रकृति की ओर [ख] अथवा जो हमारे ही कार्य के लिए [अस्मे] लोकहित के ही लिए इस पार्थिव शरीर में वा पृथिवी पर निवास कर रहा है [क्षि निवास]। ५. (धन्वा) = वासनाओं के लिए मरुस्थल बने हुए [धन्वा = मरु] हृदय से (पूयमानः) = निरन्तर पवित्र होता हुआ (अभिस्वर) - चारों ओर इस वेदज्ञान का उपदेश करे । इसे चाहिए कि हृदय में वासनाओं को न उमड़ने दे और प्रभु के उपदेश को – सन्देश को चारों ओर फैला दे। परिव्राजक ने परिव्रजन करते हुए यही तो करना है । ६. अन्त में प्रभु इससे कहते हैं कि (यूयं पात) = तुम अपनी रक्षा करो । ऊँचे-से-ऊँचा व्यक्ति इस प्रलोभनपूर्ण संसार में फँस सकता है, अतः प्रभु का यह निर्देश अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। गत मन्त्र में भी कहा था कि यहाँ तो ('जागृवि') = सदा जागते हुए और विचक्षण एक विशिष्ट दृष्टिकोण को रखते हुए चलना है । ७. (स्वस्तिभिः) = [सु अस्ति] उत्तम जीवनों के द्वारा सदा (नः) = तुम सदा हमारे ही हो । वसिष्ठों ने अपने जीवनों को उत्कृष्ट जितेन्द्रियता से, वशित्व से उत्तम बनाया है। इसी उत्तम जीवन के कारण वे प्रभु के हैं । ये तो वस्तुतः केवल प्रभु का सन्देश सुनाने के लिए ही यहाँ आये हैं, परन्तु फिर भी माया ‘माया' ही है—यह भी अत्यन्त प्रबल है, इनके लिए स्खलन-भय बना ही हुआ है, अतः प्रभु का अन्तिम निर्देश आवश्यक ही है कि "तुम अपनी रक्षा करो' – कहीं औरों की रक्षा करते-करते स्वयं विनष्ट हो जाओ ।
भावार्थ -
हम अपने अन्दर दिव्यता का दोहन करें – यशस्वी जीवन बिताएँ - प्रभु के निमित्त जीवन का अर्पण करें, अपने हृदयों को वासनाओं के लिए मरुस्थल बना डालें, प्रभु के सन्देश को सर्वत्र सुनाएँ—अपनी भी रक्षा करते हुए उत्तम जीवन से प्रभु के ही बने रहें । इस प्रकार के वसिष्ठ ही प्रभु के प्यारे होते हैं ।
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