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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1401
    ऋषिः - वसिष्ठो मैत्रावरुणिः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः काण्ड नाम -
    4

    स꣡मु꣢ प्रि꣣यो꣡ मृ꣢ज्यते꣣ सा꣢नौ꣣ अ꣡व्ये꣢ य꣣श꣡स्त꣢रो य꣣श꣢सां꣣ क्षै꣡तो꣢ अ꣣स्मे꣢ । अ꣣भि꣡ स्व꣢र꣣ ध꣡न्वा꣢ पू꣣य꣡मा꣢नो यू꣣यं꣡ पा꣢त स्व꣣स्ति꣢भिः꣣ स꣡दा꣢ नः ॥१४०१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स꣢म् । उ꣣ । प्रियः꣢ । मृ꣣ज्यते । सा꣡नौ꣢꣯ । अ꣡व्ये꣢꣯ । य꣣श꣡स्त꣢रः । य꣣श꣡सा꣢म् । क्षै꣡तः꣢꣯ । अ꣣स्मे꣢इति꣢ । अ꣣भि꣢ । स्व꣣र । ध꣡न्व꣢꣯ । पू꣣य꣡मा꣢नः । यू꣣य꣢म् । पा꣣त । स्व꣣स्ति꣡भिः꣢ । सु꣣ । अस्ति꣡भिः꣢꣯ । स꣡दा꣢꣯ । नः꣣ ॥१४०१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    समु प्रियो मृज्यते सानौ अव्ये यशस्तरो यशसां क्षैतो अस्मे । अभि स्वर धन्वा पूयमानो यूयं पात स्वस्तिभिः सदा नः ॥१४०१॥


    स्वर रहित पद पाठ

    सम् । उ । प्रियः । मृज्यते । सानौ । अव्ये । यशस्तरः । यशसाम् । क्षैतः । अस्मेइति । अभि । स्वर । धन्व । पूयमानः । यूयम् । पात । स्वस्तिभिः । सु । अस्तिभिः । सदा । नः ॥१४०१॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1401
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 8; मन्त्र » 3
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 12; खण्ड » 3; सूक्त » 2; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    अगले मन्त्र में विद्वान् को कहा गया है।

    पदार्थ

    हे विद्वन् ! (क्षैतः) भूमि के निवासी, (यशसाम्) यशस्वियों के मध्य (यशस्तरः) अत्यधिक यशस्वी, (प्रियः) सबके प्रिय आप (अस्मे) हमारे लिए (अव्ये सानौ) राष्ट्र भूमि के उच्चपद पर (संमृज्यते उ) अलङ्कृत वा अभिषिक्त किये जा रहे हो। (पूयमानः) पवित्र किये जाते हुए आप (धन्व) अन्तरिक्ष को (अभि स्वर) जयघोषों से गुँजा दो। हे विद्वानो ! (यूयम्) आप लोग (स्वस्तिभिः) कल्याणों से (नः) हम राष्ट्रवासियों की (सदा) हमेशा (पात) रक्षा करते रहो ॥३॥

    भावार्थ

    राष्ट्र में पवित्र आचरणवाले विद्वानों को ही उच्च पदों पर प्रतिष्ठित करना चाहिए ॥३॥

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    पदार्थ

    (प्रियः) तृप्तिकर्ता (यशसां यशस्तः) यशवालों में अत्यन्त यशवाला१ महान् आत्माओं में परम महान् (क्षैतः) मुक्तों की निवास योग्य मोक्षभूमि का स्वामी (अव्ये सानो) रक्षणीय ऊँचे सम्भजन साधन में (अस्मे सम्मृज्यते-उ) हमारे द्वारा२ सम्यक् प्राप्त किया जाता है३ (पूयमानः) वह तू प्राप्त होता हुआ (धन्व-अभिस्वर) हृदय आकाश में४ आशीर्वाद वचन बोल (यूयं पात स्वस्तिभिः सदा नः) तू५ ही हमारी सदा कल्याण क्रियाओं से रक्षा कर॥३॥

    विशेष

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    विषय

    प्रभु को प्रिय कौन ?

    पदार्थ

    प्रभु कहते हैं कि (उ) = निश्चय से (संप्रियः) = वह जीव ही हमें प्रिय है, जो – १. (मृज्यते) = गत मन्त्र = में वर्णित सात बातों से शुद्ध कर दिया जाता है २. (अव्ये) = [अव-भागदुघ-प्रभु के गुणों को अपने में पूरण करना] प्रभु के गुणों को अपने में दोहने के सानो सानौ - शिखर पर होता है, अर्थात् अधिक-से-अधिक दिव्य गुणों का अपने में दोहन करता है । ३. (यशसां यशस्तरः) = इसी कारण जो यशस्वियों में भी यशस्वी बनता है । ४. जो (अस्मे क्षैतः) = [क] हमारी ओर गति कर रहा है [क्षिगति] प्रभु की ओर चल रहा है न कि प्रकृति की ओर [ख] अथवा जो हमारे ही कार्य के लिए [अस्मे] लोकहित के ही लिए इस पार्थिव शरीर में वा पृथिवी पर निवास कर रहा है [क्षि निवास]। ५. (धन्वा) = वासनाओं के लिए मरुस्थल बने हुए [धन्वा = मरु] हृदय से (पूयमानः) = निरन्तर पवित्र होता हुआ (अभिस्वर) - चारों ओर इस वेदज्ञान का उपदेश करे । इसे चाहिए कि हृदय में वासनाओं को न उमड़ने दे और प्रभु के उपदेश को – सन्देश को चारों ओर फैला दे। परिव्राजक ने परिव्रजन करते हुए यही तो करना है । ६. अन्त में प्रभु इससे कहते हैं कि (यूयं पात) = तुम अपनी रक्षा करो । ऊँचे-से-ऊँचा व्यक्ति इस प्रलोभनपूर्ण संसार में फँस सकता है, अतः प्रभु का यह निर्देश अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। गत मन्त्र में भी कहा था कि यहाँ तो ('जागृवि') = सदा जागते हुए और विचक्षण एक विशिष्ट दृष्टिकोण को रखते हुए चलना है । ७. (स्वस्तिभिः) = [सु अस्ति] उत्तम जीवनों के द्वारा सदा (नः) = तुम सदा हमारे ही हो । वसिष्ठों ने अपने जीवनों को उत्कृष्ट जितेन्द्रियता से, वशित्व से उत्तम बनाया है। इसी उत्तम जीवन के कारण वे प्रभु के हैं । ये तो वस्तुतः केवल प्रभु का सन्देश सुनाने के लिए ही यहाँ आये हैं, परन्तु फिर भी माया ‘माया' ही है—यह भी अत्यन्त प्रबल है, इनके लिए स्खलन-भय बना ही हुआ है, अतः प्रभु का अन्तिम निर्देश आवश्यक ही है कि "तुम अपनी रक्षा करो' – कहीं औरों की रक्षा करते-करते स्वयं विनष्ट हो जाओ ।

    भावार्थ

    हम अपने अन्दर दिव्यता का दोहन करें – यशस्वी जीवन बिताएँ - प्रभु के निमित्त जीवन का अर्पण करें, अपने हृदयों को वासनाओं के लिए मरुस्थल बना डालें, प्रभु के सन्देश को सर्वत्र सुनाएँ—अपनी भी रक्षा करते हुए उत्तम जीवन से प्रभु के ही बने रहें । इस प्रकार के वसिष्ठ ही प्रभु के प्यारे होते हैं ।

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ विद्वानुच्यते।

    पदार्थः

    हे विद्वन् ! (क्षैतः) क्षितिः पृथिवी तस्यां विद्यमानः (यशसाम्) यशस्विनां मध्ये (यशस्तरः) यशस्वितरः (प्रियः) सर्वेषां स्नेहभाजनभूतो भवान् (अस्मे) अस्मदर्थम् (अव्ये सानौ) राष्ट्रभूमेः उच्चपदे। [अविः पृथिवी तस्या इदम् अव्यम्।] (सं मृज्यते उ) अलङ्क्रियते अभिषिच्यते वा। (पूयमानः) पवित्रीक्रियमाणः त्वम् (धन्व) अन्तरिक्षम्। [धन्व इति अन्तरिक्षनाम। निघं० १।३। धन्व अन्तरिक्षं धन्वन्त्यस्मादापः निरु० ५।५।] (अभि स्वर) अभिशब्दय, जयघोषैरन्तरिक्षमापूरयेत्यर्थः। [स्वृ शब्दोपतापयोः, भ्वादिः।] हे विद्वांसः ! (यूयम् स्वस्तिभिः) कल्याणैः (नः) अस्मान् राष्ट्रवासिनः (सदा) नित्यम् (पात) रक्षत ॥३॥

    भावार्थः

    राष्ट्रे पवित्राचरणा विद्वांस एवोच्चपदेषु प्रतिष्ठापनीयाः ॥३॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Nobler than the noble, born on this earth, skilled in Pranayama and top most penance, dear, the Yogi is adorned with noble virtues for us. Lofty in thy purity, as an ascetic, inculcate in us noble teachings, O Yogi, O learned persons, preserve us evermore with your propitious instructions !

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    Meaning

    O Soma spirit of power and poetic creativity, exalted on top of protection, defence and advancement, honoured of the honourable, of the earth earthy for our sake, shine and resound across the spaces. O divinities, pray protect and promote us with all round well being and good fortune for all time. (Rg. 9-97-3)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (प्रियः) તૃપ્તિકર્તા (यशसां यशस्तः) યશવાળાઓમાં અત્યંત યશવાળા, મહાન આત્માઓમાં પરમ મહાન, (क्षैतः) મુક્તોની નિવાસ યોગ્ય મોક્ષભૂમિના સ્વામી (अव्ये सानो) રક્ષણીય શ્રેષ્ઠ સંભજન સાધનમાં (अस्मे सम्मृज्यते उ) અમારા દ્વારા સમ્યક્ પ્રાપ્ત કરવામાં આવે છે. (पूयमानः) તે તું પ્રાપ્ત થઈને (धन्व अभिस्वर) હૃદય અવકાશમાં આશીર્વાદ વચન બોલ (यूयं पात स्वस्तिभिः सदा नः) જ અમારી સદા કલ્યાણ ક્રિયાઓથી રક્ષા કર. (૩)
     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    पवित्र आचरण करणाऱ्या विद्वानांनाच राष्ट्रात उच्च पदावर प्रतिष्ठित केले पाहिजे. ॥३॥

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