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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 503
ऋषिः - भृगुर्वारुणिर्जमदग्निर्भार्गवो वा
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम - पावमानं काण्डम्
1
अ꣡र्षा꣢ सोम द्यु꣣म꣡त्त꣢मो꣣ऽभि꣡ द्रोणा꣢꣯नि꣣ रो꣡रु꣢वत् । सी꣢द꣣न्यो꣢नौ꣣ व꣢ने꣣ष्वा꣢ ॥५०३॥
स्वर सहित पद पाठअ꣡र्षा꣢꣯ । सो꣣म । द्युम꣡त्त꣢मः । अ꣣भि꣢ । द्रो꣡णा꣢꣯नि । रो꣡रु꣢वत् । सी꣡द꣢꣯न् । यो꣡नौ꣢꣯ । व꣡ने꣢꣯षु । आ ॥५०३॥
स्वर रहित मन्त्र
अर्षा सोम द्युमत्तमोऽभि द्रोणानि रोरुवत् । सीदन्योनौ वनेष्वा ॥५०३॥
स्वर रहित पद पाठ
अर्षा । सोम । द्युमत्तमः । अभि । द्रोणानि । रोरुवत् । सीदन् । योनौ । वनेषु । आ ॥५०३॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 503
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 2; मन्त्र » 7
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 4;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 2; मन्त्र » 7
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 4;
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विषय - ऊर्ध्व-गति
पदार्थ -
हे (सोम) = तू (द्युमत्तमः) = मेरे जीवन को सर्वाधिक प्रकाशमय बनानेवाला है। सोम की ऊर्ध्वगति होकर यह ज्ञानाग्नि का ईंधन बनाता है और ज्ञानाग्नि दीप्त होकर मेरे जीवन को प्रकाशमय करती है। (रारुवत्) = निरन्तर प्रभु के नामों का जप करता हुआ तू (द्रोणानि अभि) = ऊर्ध्वगति का लक्ष्य करके (अर्ष) = प्रवाहित हो। 'द्रुम' [वृक्ष] शब्द मैं द्रु धातु है जो कि गतिवाचक है। वृक्ष में जैसे मूल मे डाला हुआ जल ऊपर शिखर तक पहुँचकर पत्ते- पत्ते को हरा-भरा करनेवाला होता है। इसी प्रकार ऊर्ध्वगतिवाला सोम मस्तिष्क की ज्ञानाग्नि को ही नहीं सभी अंशों को सबल बनाता है।
हे सोम! तू (योनौ) = अपने उत्पत्ति स्थान इस शरीर में ही (सीदन्) = स्थित होता हुआ (वनेषु) = उत्तम संभाजनीय वस्तुओं के निमित्त (आ) = समन्तात् शरीर में व्याप्त हो । यदि सोम शरीर में ही रहे, जहाँ वह उत्पन्न हुआ है तो यह अपने धारक को सब सेव्य वस्तुओं का प्राप्त करानेवाला होता है। वस्तुतः शरीर में सोम उत्पन्न हुआ है, यही इसका धारण करने का सर्वोत्तम स्थान है। इसके धारण से उत्तमोत्तम गुणों की वृद्धि होती है।
इसका धारण तप की अपेक्षा करता है - आरामपसन्दगी इसके लिए विघातक है, इसका धारण करनेवाला ‘भृगु' – तपस्वी है, अपना परिपाक करनेवाला है। उसका जीवन श्रेष्ठ होने से यह ‘वारुणि' है। पूर्ण स्वस्थ होने से यह 'जमदग्नि' है- इसकी जठराग्नि दीप्त है।
भावार्थ -
मैं प्रभु के नामों का जप करूँ और 'उर्ध्वरेतस्' बनूँ।
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