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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 503
    ऋषिः - भृगुर्वारुणिर्जमदग्निर्भार्गवो वा देवता - पवमानः सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम - पावमानं काण्डम्
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    अ꣡र्षा꣢ सोम द्यु꣣म꣡त्त꣢मो꣣ऽभि꣡ द्रोणा꣢꣯नि꣣ रो꣡रु꣢वत् । सी꣢द꣣न्यो꣢नौ꣣ व꣢ने꣣ष्वा꣢ ॥५०३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ꣡र्षा꣢꣯ । सो꣣म । द्युम꣡त्त꣢मः । अ꣣भि꣢ । द्रो꣡णा꣢꣯नि । रो꣡रु꣢वत् । सी꣡द꣢꣯न् । यो꣡नौ꣢꣯ । व꣡ने꣢꣯षु । आ ॥५०३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अर्षा सोम द्युमत्तमोऽभि द्रोणानि रोरुवत् । सीदन्योनौ वनेष्वा ॥५०३॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अर्षा । सोम । द्युमत्तमः । अभि । द्रोणानि । रोरुवत् । सीदन् । योनौ । वनेषु । आ ॥५०३॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 503
    (कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 2; मन्त्र » 7
    (राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 4;
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में सोम परमात्मा तथा वानप्रस्थ मनुष्य का आह्वान किया गया है।

    पदार्थ

    प्रथम—परमात्मा के पक्ष में। हे (सोम) रस के भण्डार परमात्मन् ! (वनेषु) वनों में, वन के लता-कुञ्ज आदियों में, और (योनौ) नगरस्थ घरों में, सर्वत्र (सीदन्) विराजमान होते हुए (द्युमत्तमः) अतिशय तेजस्वी आप (रोरुवत्) उपदेश करते हुए (द्रोणानि अभि) हमारे हृदय-रूप द्रोण-कलशों में (अर्ष) आइए ॥ द्वितीय—वानप्रस्थ के पक्ष में। हे (सोम) विद्वन् वानप्रस्थ ! (वनेषु) वनों में (योनौ) वृक्ष-मूल रूप घर में (आसीदन्) निवास करते हुए, (द्युमत्तमः) अतिशय तेजस्वी आप (रोरुवत्) पुनः-पुनः उपदेश करने की इच्छा रखते हुए (द्रोणानि अभि) गृहस्थों से आयोजित यज्ञों में (अर्ष) आइए ॥७॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है ॥७॥

    भावार्थ

    जैसे वनों में उगनेवाला सोम वहाँ से लाया जाकर दशापवित्र से छाना जाता हुआ शब्द के साथ द्रोण-कलश में आता है और जैसे रसनिधि परमेश्वर उपदेश देता हुआ स्तोताओं के हृदय में प्रकट होता है, वैसे ही वानप्रस्थ मनुष्य नगरवासियों से आयोजित यज्ञों में उपदेशार्थ आये ॥७॥

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    पदार्थ

    (सोम) हे आनन्दधारा में प्राप्त होने वाले शान्तस्वरूप परमात्मन्! तू (द्युमत्तमः) अत्यन्त द्योतनवान्—दीप्तिमान् हुआ “द्युमान् द्योतनवान्” [निरु॰ ६.१९] (वनेषु रोरुवत्) वननीय सम्भजनीय विषयों के निमित्त उत्तम उपदेश करने के हेतु (द्रोणानि-अभि-अर्ष) द्रोणकलशों—मूर्धा के अवकाशों को “मूर्धा द्रोणकलशाः” [मै॰ ४.५.९] प्राप्त हो (योनौ-आसीदन्) हृदय घर में विराजमान हो “योनिः-गृहनाम” [निघं॰ ३.४]।

    भावार्थ

    हे आनन्दधारा में आने वाले शान्त प्यारे परमात्मन्! तू अत्यन्त द्योतमान हुआ वननीय मधुर बातों के निमित्त, उत्तम उपदेश देने के हेतु, मस्तिष्कावकाशों में प्राप्त हो और हृदयगृह में स्थिररूप से विराजमान हो॥७॥

    विशेष

    ऋषिः—भृगुः (तेजस्वी उपासक)॥<br>

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    विषय

    ऊर्ध्व-गति

    पदार्थ

    हे (सोम) = तू (द्युमत्तमः) = मेरे जीवन को सर्वाधिक प्रकाशमय बनानेवाला है। सोम की ऊर्ध्वगति होकर यह ज्ञानाग्नि का ईंधन बनाता है और ज्ञानाग्नि दीप्त होकर मेरे जीवन को प्रकाशमय करती है। (रारुवत्) = निरन्तर प्रभु के नामों का जप करता हुआ तू (द्रोणानि अभि) = ऊर्ध्वगति का लक्ष्य करके (अर्ष) = प्रवाहित हो। 'द्रुम' [वृक्ष] शब्द मैं द्रु धातु है जो कि गतिवाचक है। वृक्ष में जैसे मूल मे डाला हुआ जल ऊपर शिखर तक पहुँचकर पत्ते- पत्ते को हरा-भरा करनेवाला होता है। इसी प्रकार ऊर्ध्वगतिवाला सोम मस्तिष्क की ज्ञानाग्नि को ही नहीं सभी अंशों को सबल बनाता है।

    हे सोम! तू (योनौ) = अपने उत्पत्ति स्थान इस शरीर में ही (सीदन्) = स्थित होता हुआ (वनेषु) = उत्तम संभाजनीय वस्तुओं के निमित्त (आ) = समन्तात् शरीर में व्याप्त हो । यदि सोम शरीर में ही रहे, जहाँ वह उत्पन्न हुआ है तो यह अपने धारक को सब सेव्य वस्तुओं का प्राप्त करानेवाला होता है। वस्तुतः शरीर में सोम उत्पन्न हुआ है, यही इसका धारण करने का सर्वोत्तम स्थान है। इसके धारण से उत्तमोत्तम गुणों की वृद्धि होती है।

    इसका धारण तप की अपेक्षा करता है - आरामपसन्दगी इसके लिए विघातक है, इसका धारण करनेवाला ‘भृगु' – तपस्वी है, अपना परिपाक करनेवाला है। उसका जीवन श्रेष्ठ होने से यह ‘वारुणि' है। पूर्ण स्वस्थ होने से यह 'जमदग्नि' है- इसकी जठराग्नि दीप्त है।

    भावार्थ

    मैं प्रभु के नामों का जप करूँ और 'उर्ध्वरेतस्' बनूँ।

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    विषय

    "Missing"

    भावार्थ

    भा० = हे ( सोम ) = सबके प्रेरक ! हे ( द्युमत्तम ) = प्रकाशमान् पदार्थों में सबसे श्रेष्ठ ! ( वनेषु ) = सेवन करने योग्य पदार्थों और कर्मफलों में या ब्रह्माण्डों में, ( योनौ ) = अपने आश्रयस्थान पर ( सदिन् ) = विराजमान होकर ( आ ) = विचर और ( द्रोणानि अभि ) = द्रवणशील, विनाशशील इन कलशस्वरूप देहों में भी ( रोरुवत् ) = प्राणरूप से नाद करता हुआ तू ( आ अर्ष ) = व्याप्त हो ।

    टिप्पणी

    ५०३ -'सीदन् श्येनो न योनिमा' इति ऋ० ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः - भृगु:।

    देवता - पवमान:।

    छन्दः - गायत्री।

    स्वरः - षड्जः। 

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ सोमः परमात्मा वानप्रस्थो वाऽऽहूयते।

    पदार्थः

    प्रथमः—परमात्मपरः। हे (सोम) रसागार परमात्मन् ! (वनेषु) अरण्येषु, अरण्यस्थेषु लताकुञ्जादिषु, (योनौ) नगरस्थे गृहे च, सर्वत्र इति यावत्। योनिरिति गृहनाम। निघं० ३।४। जातौ एकवचनम्। (आसीदन्) विराजमानः (द्युमत्तमः) तेजस्वितमः, त्वम् (रोरुवत्) उपदिशन् (द्रोणानि अभि) अस्माकं हृदयरूपान् द्रोणकलशान् प्रति (अर्ष) आयाहि। ऋ गतौ, लेटि रूपम्। ‘द्व्यचोऽतस्तिङः।’ अ० ६।३।१३५ इति दीर्घः ॥ अथ द्वितीयः—वानप्रस्थपरः। हे (सोम) विद्वन् वानप्रस्थ ! (वनेषु) अरण्येषु (योनौ) वृक्षमूलरूपे गृहे, वृक्षमूलनिकेतनः। मनु० ६।२६ इति वचनात्। (आसीदन्) निवसन् (द्युमत्तमः) तेजस्वितमः त्वम् (रोरुवत्) पुनः पुनः उपदेक्ष्यन् (द्रोणानि अभि) गृहस्थैरायोजितान् यज्ञान् प्रति। यज्ञो वै द्रोणकलशः। श० ४।५।८।५। (अर्ष) गच्छ ॥७॥ अत्र श्लेषालङ्कारः ॥७॥

    भावार्थः

    यथा वनेषु प्ररूढः सोमस्तत आनीतो दशापवित्रेण संशोध्यमानः सशब्दं द्रोणकलशमागच्छति, यथा च रसनिधिः परमेश्वर उपदिशन् स्तोतॄणां हृदयप्रदेशं समेति तथैव वानप्रस्थो नगरवासिभिरायोजितान् यज्ञानुपदेशार्थं गच्छेत् ॥७॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ९।६५।१९, ऋषिः भृगुर्वारुणिर्जमदग्निर्वा। ‘सीदञ्छ्येनो न योनिमा’ इति तृतीयः पादः।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O God, exceeding bright, reside in our hearts, Thy home. Resting in our hearts, inculcate the Vedic teachings!

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    Meaning

    Soma, spirit of divine power and peace of purity, most potent and most refulgent, come roaring at the speed and force of thunder and abide in the flames of yajna and heart of the faithful and purify and sanctify the soul. (Rg. 9-65-19)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (सोम) હે આનંદધારામાં પ્રાપ્ત થનાર શાન્ત સ્વરૂપ પરમાત્મન્ ! તું (द्युमत्तमः) અત્યંત દ્યૌતમાન દીપ્તિમાન થઈને (वनेषु रोरुवत्) વનનીય સંભજનીય વિષયોને માટે ઉત્તમ ઉપદેશ કરવા માટે (द्रोणानि अभि अर्ष) દ્રોણકલશો-મૂર્ધાના અવકાશોને પ્રાપ્ત થા (योनौ आसीदन्) હૃદયઘરમાં બિરાજમાન થા. (૭)

    भावार्थ

    ભાવાર્થ : હે આનંદધારામાં આવનાર શાન્ત પ્રિય પરમાત્મન્ ! તું અત્યંત પ્રકાશમાન થઈને, વનનીય મધુર વાતોને માટે, ઉત્તમ ઉપદેશ આપવા માટે, મસ્તિષ્કના અવકાશમાં પ્રાપ્ત થા; અને હૃદયઘરમાં સ્થિરરૂપથી બિરાજમાન થા. (૭)

     

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    उर्दू (1)

    Mazmoon

    پربُھو کی بانی کو چاروں طرف گونجاؤ

    Lafzi Maana

    بھگتی رس کے چاہک عابد اُپاسک! تُو جنگلوں میں قدرت کی گود میں بیٹھ کر جگت جننی مال سے میل کر اپنے اندر کی گیان جیوتی کو جلا اور سب دُنیا میں بھگوان کے نام اور مہما کو گونجاتا چل۔

    Tashree

    بھگتی رس کے رسک عابد بن کی یکسُوئی میں جا، ایش سے لے گیان جیوتی سب کو امرت دے پلا۔

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जसे वनात उगवणारा सोम तेथून आणून दशापवित्रने चाळला जातो व आवाज करत द्रोण-कलशामध्ये येतो व जसे रसनिधी परमेश्वर प्रशंसकाच्या हृदयात प्रकट होतो, तसेच वानप्रस्थी लोकांनी नगरवासी लोकांना आयोजित केलेल्या यज्ञात उपदेश करण्यासाठी यावे ॥७॥

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    तमिल (1)

    Word Meaning

    சோமனே! சிறந்த சோதியோடு கலசத்திற்கு சத்தஞ் செய்துகொண்டு வனங்களில் சலங்களில் நிலையாயிருந்துகொண்டு பெருகி ஓடவும்.

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