अथर्ववेद - काण्ड 15/ सूक्त 16/ मन्त्र 7
सूक्त - अध्यात्म अथवा व्रात्य
देवता - आसुरी गायत्री
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
तस्य॒व्रात्य॑स्य।योऽस्य॑ सप्त॒मोऽपा॒नस्ता इ॒मा दक्षि॑णाः ॥
स्वर सहित पद पाठतस्य॑ । व्रात्य॑स्य । य: । अ॒स्य॒ । स॒प्त॒म: । अ॒पा॒न: । ता: । इ॒मा: । दक्षि॑णा: ॥१६.७॥
स्वर रहित मन्त्र
तस्यव्रात्यस्य।योऽस्य सप्तमोऽपानस्ता इमा दक्षिणाः ॥
स्वर रहित पद पाठतस्य । व्रात्यस्य । य: । अस्य । सप्तम: । अपान: । ता: । इमा: । दक्षिणा: ॥१६.७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 16; मन्त्र » 7
विषय - सात 'अपान' दोषापनयन साधन
पदार्थ -
१. (तस्य व्रात्यस्य) = उस व्रात्य का (यः अस्य) = जो इसका (प्रथमः अपान:) = प्रथम अपान है (सा पौर्णमासी) = वह पौर्णमासी है (तस्य व्रात्यस्य) = उस व्रात्य का (यः अस्य) = जो इसका (द्वितीयः अपान:) = द्वितीय अपान है (सा अष्टका) = वह अष्टका है। (तस्य व्रात्यस्य) = उस व्रात्य का (यः अस्य) = जो इसका (तृतीयः अपाना:) = तीसरा अपान है (सा अमावास्या) = वह अमावास्या है (तस्य खात्यस्य) = उस व्रात्य का (यः अस्य) = जो इसका (चतुर्थः अपान:) = चौथा अपान है (सा श्रद्धा) = वह श्रद्धा है (तस्य व्रात्यस्य) = उस व्रात्य का (यः अस्य) = जो इसका (पञ्चमः अपान:) = पञ्चम अपान है (सा दीक्षा) = वह दीक्षा है (तस्य व्रात्यस्य) = उस व्रात्य का (यः अस्य) = जो इसका (षष्ठः अपान:) = छठा अपान है, (सः यज्ञ:) = वह यज्ञ है और (तस्य व्रात्यस्य) = उस व्रात्य का (यः अस्य) = जो इसका (सप्तमः अपान:) = सातवाँ अपान है (ताः इमा दक्षिणा:) = वे ये दानवृत्तियाँ हैं। २. व्रात्य ने अपने दोषों को दूर करने के लिए जिन साधनों को अपनाया, वे ही अपान हैं। पहला अपान पौर्णमासी है, अर्थात् व्रात्य संकल्प करता है कि जैसे पूर्णिमा का चाँद सब कलाओं से पूरिपूर्ण है, इसी प्रकार मैं भी अपने जीवन को १६ कलाओं से [प्राण, श्रद्धा, पंचभूत, इन्द्रियाँ, मन, अन्न, वीर्य, मन्त्र, कर्म, लोक व नाम] परिपूर्ण बनाऊँगा। जीवन को ऐसा बनाने के लिए दूसरा 'अपान' अष्टक साधन बनता है। अष्टका से अष्टांगयोगमार्ग अभिप्रेत है। इस योगमार्ग को [यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान व समाधि] अपनाने से मानवजीवन पूर्णता की ओर अग्रसर होता है। इस जीवन का तीसरा अपान है 'अमावास्या'। इसका अभिप्राय है 'सूर्य व चन्द्र' का एक राशि में होना। इस व्रात्य के जीवन में मस्तिष्क गगन में ज्ञानसूर्य का उदय होता है तो हृदय में भक्तिरस के चन्द्र का। एवं इसका जीवन प्रकाश व आनन्द से परिपूर्ण होता है। ४. इस अनुभव से इसके जीवन में 'श्रद्धा' का प्रवेश होता है। यह श्रद्धा उसके जीवन को पवित्र करती हुई उसके लिए कामायनी' बनती है। इस श्रद्धा के कारण ही यह 'दीक्षा' में प्रवेश करता है-कभी भी इसका जीवन 'अन्नती' नहीं होता। अल्पव्रतों का पालन करता हुआ यह महाव्रतों की ओर झुकता है। इसका जीवन 'यज्ञमय' बनता है। यज्ञों की पराकाष्ठा ही 'दक्षिणाएँ' व दानबृत्तियों होती हैं [यज् दाने] इनको अपनाता हुआ यह सब पापों को छिन्नकर लेता है और पूर्ण पवित्र जीवनवाला बनकर प्रभु की प्रीति का पात्र होता है।
भावार्थ -
हम इस सूक्त में प्रतिपादित 'पौर्णमासी, अष्टका, अमावास्या, श्रद्धा, दीक्षा, यज्ञ, दक्षिणा' रूप सात अपानों को अपनाते हुए पवित्र जीवनवाला बनें।
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