अथर्ववेद - काण्ड 15/ सूक्त 17/ मन्त्र 4
सूक्त - अध्यात्म अथवा व्रात्य
देवता - साम्नी उष्णिक्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
तस्य॒व्रात्य॑स्य।योऽस्य॑ चतु॒र्थो व्या॒नस्तानि॒ नक्ष॑त्राणि ॥
स्वर सहित पद पाठतस्य॑ । व्रात्य॑स्य । य: । अ॒स्य॒ । च॒तु॒र्थ: । वि॒ऽआ॒न: । तानि॑ । नक्ष॑त्राणि ॥१७.४॥
स्वर रहित मन्त्र
तस्यव्रात्यस्य।योऽस्य चतुर्थो व्यानस्तानि नक्षत्राणि ॥
स्वर रहित पद पाठतस्य । व्रात्यस्य । य: । अस्य । चतुर्थ: । विऽआन: । तानि । नक्षत्राणि ॥१७.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 17; मन्त्र » 4
विषय - सात व्यान
पदार्थ -
१. (तस्य व्रात्यस्य) = उस व्रात्य का (यः अस्य) = जो इसका (प्रथम: व्यान:) = पहला व्यान है, (सा इयं भूमिः) = वह यह भूमि है। (तस्य व्रात्यस्य अस्य) = उस वात्य का (यः अस्य) = जो इसका (द्वितीयः व्यान:) = दूसरा व्यान है (तत् अन्तरिक्षम्) = वह अन्तरिक्ष है। (तस्य व्रात्यस्य) = उस व्रात्य का (यः अस्य) = जो इसका (तृतीयः व्यान:) = तीसरा व्यान है, (सा द्यौः) = वह द्युलोक है। (तस्य व्रात्यस्य) = उस व्रात्य का (यः अस्य) = जो इसका (चतुर्थः व्यान:) = चौथा व्यान है (तानि) = वे (नक्षत्राणि) = नक्षत्र हैं। (तस्य व्रात्यस्य) = उस व्रात्य का (यः अस्य) = जो इसका (पंचमः व्यान:) = पाँचवाँ व्यान है (ते ऋतव:) = वे ऋतुएँ हैं। (तस्य व्रात्यस्य) = उस व्रात्य का (यः अस्य) = जो इसका (षष्ठः व्यान:) = छठा व्यान है (ते आर्तवा:) = वे आर्तव है-उस-उस ऋतु में होनेवाले फल, अन्न आदि हैं। (तस्य व्रात्यस्य) = उस वात्य का (यः) = जो (अस्य) = इसका (सप्तमः व्यान:) = सातवाँ व्यान है, (सः संवत्सरः) = वह संवत्सर है। २. 'व्यान' का अर्थ आचार्य [स्वा० दयानन्द] यजुः १५.६५ पर 'विविधविद्या व्याप्ति' करते हैं। १.२० पर "विविधमन्यते व्याप्यते येन स सर्वेषां शुभगुणानां कर्मविद्योगानाञ्च व्याप्तिहेतुः" इस रूप में लिखते हैं। एवं स्पष्ट है कि व्यान का भाव-सब ज्ञानों की प्राप्ति-जीवन के निर्माण के लिए, जीवन को शुभगुणों व विद्याओं से व्याप्त करने के साधनभूत प्राणवायु पर आधिपत्य। इस नात्य के जीवन में प्रथम व्यान 'भूमि' है, द्वितीय अन्तरिक्ष', तृतीय 'द्यौ:' और चतुर्थ 'नक्षत्र'। यह व्रात्य इन सबके ज्ञान को सम्यक्तया प्राप्त करके क्रमश: अपने 'शरीर, मन व मस्तिष्क' [भूमि, अन्तरिक्ष, द्यौः] को उत्तम बनाता हुआ व विज्ञान के नक्षत्रों को अपने मस्तिष्क-गगन में उदित करता है। इनके उदय से ही वह जीवन के लिए आवश्यक सब सामग्नी को जुटानेवाला होता है। ३. पाँचवाँ व्यान 'ऋतुएँ' है, छठा 'आर्तव' ऋतुओं में होनेवाले अन्न व फल तथा सातवाँ 'संवत्सर'। यह व्रात्य अपनी ऋतुचर्या को ठीक रखता है, उस-उस ऋतु में उन 'आर्तव' पदार्थों का ठीक प्रयोग करता है, सम्पूर्ण वर्ष बड़ी नियमित गतिवाला होता है। इसी दृष्टिकोण से यह कालविद्या को खूब समझने का प्रयत्न करता है।
भावार्थ -
व्रात्य 'भूमि, अन्तरिक्ष, धुलोक, नक्षत्र, ऋतु, आर्तव व संवत्सर' इन सबका ज्ञान प्राप्त करके इनका ठीक प्रयोग करता हुआ अपने जीवन को सुन्दरतम बनाता है।
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