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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 90

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 90/ मन्त्र 1
    सूक्त - भरद्वाजः देवता - बृहस्पतिः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-९०

    यो अ॑द्रि॒भित्प्र॑थम॒जा ऋ॒तावा॒ बृह॒स्पति॑राङ्गिर॒सो ह॒विष्मा॑न्। द्वि॒बर्ह॑ज्मा प्राघर्म॒सत्पि॒ता न॒ आ रोद॑सी वृष॒भो रो॑रवीति ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य: । अ॒द्रि॒ऽभित् । प्र॒थ॒म॒ऽजा: । ऋ॒तऽवा॑ । बृह॒स्पति: । आ॒ङ्गि॒र॒स: । ह॒विष्मा॑न् ॥ द्वि॒बर्ह॑ऽज्मा । प्रा॒घ॒र्म॒ऽसत् । पि॒ता । न॒: । आ । रोद॑सी॒ इति॑ । वृ॒ष॒भ: । रो॒र॒वी॒ति॒ ॥९०.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यो अद्रिभित्प्रथमजा ऋतावा बृहस्पतिराङ्गिरसो हविष्मान्। द्विबर्हज्मा प्राघर्मसत्पिता न आ रोदसी वृषभो रोरवीति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    य: । अद्रिऽभित् । प्रथमऽजा: । ऋतऽवा । बृहस्पति: । आङ्गिरस: । हविष्मान् ॥ द्विबर्हऽज्मा । प्राघर्मऽसत् । पिता । न: । आ । रोदसी इति । वृषभ: । रोरवीति ॥९०.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 90; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    १. (यः) = जो प्रभु (अद्रिभित्) = हमारे अविद्यापर्वत का विदारण करनेवाले हैं, (प्रथमजा:) = सृष्टि से पूर्व ही विद्यमान हैं, (ऋतावा:) = ऋतवाले हैं-प्रभु के तीन तप से ही तो ऋत की उत्पत्ति होती है 'ऋतं च सत्यं चाभीद्धात्तपसोऽध्यजायत, (बृहस्पति:) = [ब्रह्मणस्पतिः] वेदज्ञान के रक्षक हैं। (अङ्गिरस:) = उपासकों के अंग-प्रत्यंग में रस का संचार करनेवाले हैं, (हविष्मान) = प्रशस्त हविवाले हैं। प्रभु ही सृष्टियज्ञ के महान् होता हैं। २. (द्विबर्हज्मा) = दोनों लोकों में प्रवृद्ध गतिवाले हैं [द्वि-बई-ज्मा]-द्युलोक व पृथिवीलोक में सर्वत्र प्रभु की क्रिया विद्यमान है। (प्राघर्मसत्) = प्रकृष्ट तेज में आसीन होनेवाले हैं-तेज पुञ्ज हैं-तेज-ही-तेज हैं। (नः पिता) = हम सबके पिता है। (वृषभ:) = ये सुखों का वर्षण करनेवाले प्रभु (रोदसी) = इन द्यावापृथिवी में (आरोरवीति) = खूब ही गर्जना करते हैं। इन लोकों में स्थित मनुष्यों के हृदयों में स्थित होकर उन्हें कर्तव्याकर्तव्य का उपदेश करते हैं। अच्छे कर्मों में उत्साह व बुरे कर्मों में भय प्रभु ही तो प्राप्त कराते हैं।

    भावार्थ - ज्ञान के स्वामी प्रभु ही हमारे अविद्यापर्वत का विदारण करते हैं। हमें तेजस्वी बनाते हैं। हृदयस्थरूपेण कर्तव्य की प्रेरणा देते हैं।

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