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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 20/ मन्त्र 3
सूक्त - भृग्वङ्गिरा
देवता - यक्ष्मनाशनम्
छन्दः - सतःपङ्क्तिः
सूक्तम् - यक्ष्मानाशन सूक्त
अ॒यं यो अ॑भिशोचयि॒ष्णुर्विश्वा॑ रू॒पाणि॒ हरि॑ता कृ॒णोषि॑। तस्मै॑ तेऽरु॒णाय॑ ब॒भ्रवे॒ नमः॑ कृणोमि॒ वन्या॑य त॒क्मने॑ ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒यम् । य:। अ॒भि॒ऽशो॒च॒यि॒ष्णु: । विश्वा॑ । रू॒पाणि॑ । हरि॑ता । कृ॒णोषि॑ । तस्मै॑ । ते॒ । अ॒रु॒णाय॑ । ब॒भ्रवे॑ । नम॑: । कृ॒णो॒मि॒ । वन्या॑य । त॒क्मने॑ ॥२०.३॥
स्वर रहित मन्त्र
अयं यो अभिशोचयिष्णुर्विश्वा रूपाणि हरिता कृणोषि। तस्मै तेऽरुणाय बभ्रवे नमः कृणोमि वन्याय तक्मने ॥
स्वर रहित पद पाठअयम् । य:। अभिऽशोचयिष्णु: । विश्वा । रूपाणि । हरिता । कृणोषि । तस्मै । ते । अरुणाय । बभ्रवे । नम: । कृणोमि । वन्याय । तक्मने ॥२०.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 20; मन्त्र » 3
विषय - अभिशोचयिष्णुः
पदार्थ -
१. (अयं यः) = यह जो (अभिशोचयिष्णु:) = शोक को बढ़ानेवाला रोग है, वह तू (विश्वा रूपाणि) = सब रूपों को (हरिता कणोषि) = पीला-सा-निस्तेज-सा कर देता है। इस पीलिया के रोगी को सब वस्तुएँ पीली-पीली-सी दिखने लगती हैं। २. (तस्मै) = उस (ते) = तेरे लिए जो तू (अरुणाय बभ्रवे) = लाल व भूरे रङ्ग का है-जो तू रोगी को ज्वर-वेग में लाल-सा व भूरा-सा कर देता है, उस तुझ (वन्याय तक्मने) = वन में [मच्छरों की अधिकता से] उत्पन्न हो जानेवाले ज्वर के लिए (नमः कृणोमि) = हम दूर से ही नमस्कार करते हैं।
भावार्थ -
ज्वर हमें शोक-सन्तस करता है, दृष्टि को विकृत कर हमारे लिए सब रूपों को पीला-सा कर देता है । वन्यभूमि में उत्पन्न होनेवाले इस ज्वर से हम बचने का उपाय करते हैं।
विशेष -
उचित औषध-प्रयोग से ज्वर को शान्त करके शान्ति का विस्तार करनेवाला 'शन्ताति' अगले चार सूक्तों का ऋषि है।