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अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 19/ मन्त्र 1
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - धाता, प्रजापतिः, पुष्टपतिः
छन्दः - जगती
सूक्तम् - प्रजा सूक्त
प्र॒जाप॑तिर्जनयति प्र॒जा इ॒मा धा॒ता द॑धातु सुमन॒स्यमा॑नः। सं॑जाना॒नाः संम॑नसः॒ सयो॑नयो॒ मयि॑ पु॒ष्टं पु॑ष्ट॒पति॑र्दधातु ॥
स्वर सहित पद पाठप्र॒जाऽप॑ति: । ज॒न॒य॒ति॒ । प्र॒ऽजा: । इ॒मा: । धा॒ता: । द॒धा॒तु॒ । सु॒ऽम॒न॒स्यमा॑ना: । स॒म्ऽजा॒ना॒ना: । सम्ऽम॑नस: । सऽयो॑नय: । मयि॑ । पु॒ष्टम् । पु॒ष्ट॒ऽपति॑: । द॒धा॒तु॒ ॥२०.१॥
स्वर रहित मन्त्र
प्रजापतिर्जनयति प्रजा इमा धाता दधातु सुमनस्यमानः। संजानानाः संमनसः सयोनयो मयि पुष्टं पुष्टपतिर्दधातु ॥
स्वर रहित पद पाठप्रजाऽपति: । जनयति । प्रऽजा: । इमा: । धाता: । दधातु । सुऽमनस्यमाना: । सम्ऽजानाना: । सम्ऽमनस: । सऽयोनय: । मयि । पुष्टम् । पुष्टऽपति: । दधातु ॥२०.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 19; मन्त्र » 1
विषय - संज्ञान-साम्मनस्य-समानोद्देश्यता
पदार्थ -
१. (प्रजापतिः) = प्रजाओं का स्रष्टा व पालयिता वह देव (इमाः प्रजा:) = इन पुत्र आदि प्रजाओं को (जनयतु) = जन्म दे। प्रभुकृपा से मुझे सन्तान प्रास हों। (धाता) = पोषकदेव (सुमनस्यमान:) = सौमनस्य को प्राप्त हुआ-हुआ (दधातु) = उनका पोषण करे। मेरे प्रति प्रीतिवाला प्रभु मेरी सन्तानों का पोषण करे। २. वे प्रजाएँ (संजानाना:) = समान ज्ञानवाली होती हुई, कार्यों के विषय में परस्पर ऐकमत्य को प्राप्त हुई-हुई, (संमनस:) = संगत मनवाली, परस्पर अविरोधी कार्यों का चिन्तन करनेवाली, (सयोनय:) = समान कारणवाली, एक उद्देश्य से प्रेरित होकर कार्य करनेवाली जिस प्रकार हों वैसे (पुष्टपति:) = सब पोषणों का पति प्रभु (पुष्टम्) = प्रजाविषयक पोषण को (मयि दधातु) = मुझमें धारण करे।
भावार्थ -
प्रभुकृपा से हमें सन्तान प्राप्त हों, हम उनका सम्यक् धारण कर पाएँ। वे सन्ताने संज्ञानवाली, साम्मनस्यवाली तथा समान उद्देश्य से प्रेरित होकर कार्य करनेवाली हों। प्रभु हमारे लिए इसप्रकार की सन्तानों का पोषण करें।
आत्मनिरीक्षण द्वारा [अथ अर्वाङ्] अपनी कमियों को दूर करते हुए ही हम घरों को उत्तम बना सकते हैं। इन घरों में परस्पर अनुकूल मति [अनुमति] का होना आवश्यक है। अगले सूक्त के ऋषि व देवता ये अथर्वा और अनुमति ही हैं -
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