अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 50/ मन्त्र 2
तु॒राणा॒मतु॑राणां वि॒शामव॑र्जुषीणाम्। स॒मैतु॑ वि॒श्वतो॒ भगो॑ अन्तर्ह॒स्तं कृ॒तं मम॑ ॥
स्वर सहित पद पाठतु॒राणा॑म् । अतु॑राणाम् । वि॒शाम् । अव॑र्जुषीणाम् । स॒म्ऽऐतु॑ । वि॒श्वत॑: । भग॑: । अ॒न्त॒:ऽह॒स्तम् । कृ॒तम् । मम॑ ॥५२.२॥
स्वर रहित मन्त्र
तुराणामतुराणां विशामवर्जुषीणाम्। समैतु विश्वतो भगो अन्तर्हस्तं कृतं मम ॥
स्वर रहित पद पाठतुराणाम् । अतुराणाम् । विशाम् । अवर्जुषीणाम् । सम्ऽऐतु । विश्वत: । भग: । अन्त:ऽहस्तम् । कृतम् । मम ॥५२.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 50; मन्त्र » 2
विषय - श्री का निवास कहाँ?
पदार्थ -
१. (तुराणाम्) = जल्दबाजों का, बिना विचारे शीघ्रता से कार्य करनेवालों का, (अतुराणाम्) = आलस्य के कारण स्फूर्ति से कार्य न कर सकनेवालों का, (अवर्जुषीणाम्) = बुराइयों को, अन्याय्य मार्गों को न छोड़नेवाली (विशाम्) = प्रजाओं का (भग:) = ऐश्वर्य (विश्वत:) = सब ओर से (समैतु) = मुझे प्राप्त हो। इन दोषों से रहित यह ऐश्वर्य (मम अन्तः हस्तं कृतम्) = मेरे हाथों के अन्दर किया जाए।
भावार्थ -
ऐश्वर्य [श्री] का निवास वहाँ होता है जहाँ १. सब कार्य विचारपूर्वक किये जाएँ, जल्दबाजी में नहीं २. जहाँ आलस्य न करके कार्यों को स्फूर्ति से किया जाए और ३. जहाँ अशुभ व अन्याय्य मार्ग का वर्जन हो।
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