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अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 58/ मन्त्र 2
सूक्त - कौरूपथिः
देवता - इन्द्रावरुणौ
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - अन्न सूक्त
इन्द्रा॑वरुणा मधुमत्तमस्य॒ वृष्णः॒ सोम॑स्य वृष॒णा वृ॑षेथाम्। इ॒दं वा॒मन्धः॒ परि॑षिक्तमा॒सद्या॒स्मिन्ब॒र्हिषि॑ मादयेथाम् ॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्रा॑वरुणा । मधु॑मत्ऽतमस्य । वृष्ण॑: । सोम॑स्य । वृ॒ष॒णा॒ । आ । वृ॒षे॒था॒म् । इ॒दम् । वा॒म् । अन्ध॑: । परि॑ऽसिक्तम् । आ॒ऽसद्य॑: । अ॒स्मिन् । ब॒र्हिषि॑ । मा॒द॒ये॒था॒म् ॥६०.२॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्रावरुणा मधुमत्तमस्य वृष्णः सोमस्य वृषणा वृषेथाम्। इदं वामन्धः परिषिक्तमासद्यास्मिन्बर्हिषि मादयेथाम् ॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्रावरुणा । मधुमत्ऽतमस्य । वृष्ण: । सोमस्य । वृषणा । आ । वृषेथाम् । इदम् । वाम् । अन्ध: । परिऽसिक्तम् । आऽसद्य: । अस्मिन् । बर्हिषि । मादयेथाम् ॥६०.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 58; मन्त्र » 2
विषय - 'मधुमत्तम' सोम
पदार्थ -
१. हे (इन्द्रावरुणा) = जितेन्द्रिय व वासनाओं का निवारण करनेवाले पुरुषो! आप इस (मधुमत्तस्य) = जीवन को अत्यन्त मधुर बनानेवाले (वृष्णा:) = शक्तिशाली (सोमस्य) = सोम का वृषेथाम् शरीर में ही सेचन करो। आप (वृषणा) = सोमरक्षण द्वारा शक्तिशाली बनते हो। २. (इदम्) = यह सोम (वाम् अन्धः) = आपका भोजन है, (परिषिक्तम्) = यह शरीर में चारों ओर सिक्त हुआ है। अब आप (अस्मिन्) = इस (बर्हिषि) = [बृह उद्यमने] जिसमें से वासनाओं का उर्हण कर दिया गया है, उस हृदय में (आसद्य) = आसीन होकर, अर्थात् पवित्र हृदय में प्रभु का ध्यान करते हुए (मादयेथाम्) = आनन्दित होवो।
भावार्थ -
इन्द्र और वरुण इस मधुमत्तम सोम का पान करते हुए शक्तिशाली बनते हैं। यह सोम उनका भोजन हो जाता है। इसी दृष्टि से वे पवित्र हृदय में प्रभु का प्रात:-सायं ध्यान करते सोमरक्षण द्वारा यह 'बादरायणि' बनता है, [बद to be steady or firm]-अपने मार्ग पर दृढ़ता से चलनेवाला। यह बादरायणि औरों के आक्रोश की चिन्ता न करता हुआ मार्ग पर दृढ़ता से आगे बढ़ता है। यही अगले सूक्त का ऋषि है -
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