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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 31 के मन्त्र
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ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 31/ मन्त्र 10
ऋषिः - हिरण्यस्तूप आङ्गिरसः
देवता - अग्निः
छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप्
स्वरः - निषादः
त्वम॑ग्ने॒ प्रम॑ति॒स्त्वं पि॒तासि॑ न॒स्त्वं व॑य॒स्कृत्तव॑ जा॒मयो॑ व॒यम्। सं त्वा॒ रायः॑ श॒तिनः॒ सं स॑ह॒स्रिणः॑ सु॒वीरं॑ यन्ति व्रत॒पाम॑दाभ्य ॥
स्वर सहित पद पाठत्वम् । अ॒ग्ने॒ । प्रऽम॑तिः । त्वम् । पि॒ता । अ॒सि॒ । नः॒ । त्वम् । व॒यः॒ऽकृत् । तव॑ जा॒मयः॑ । व॒यम् । सम् । त्वा॒ । रायः॑ । श॒तिनः॒ । सम् । स॒ह॒स्रिणः॑ । सु॒वीर॑म् । य॒न्ति॒ । व्र॒त॒ऽपाम् । अ॒दा॒भ्य॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वमग्ने प्रमतिस्त्वं पितासि नस्त्वं वयस्कृत्तव जामयो वयम्। सं त्वा रायः शतिनः सं सहस्रिणः सुवीरं यन्ति व्रतपामदाभ्य ॥
स्वर रहित पद पाठत्वम्। अग्ने। प्रऽमतिः। त्वम्। पिता। असि। नः। त्वम्। वयःऽकृत्। तव जामयः। वयम्। सम्। त्वा। रायः। शतिनः। सम्। सहस्रिणः। सुवीरम्। यन्ति। व्रतऽपाम्। अदाभ्य ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 31; मन्त्र » 10
अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 33; मन्त्र » 5
अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 33; मन्त्र » 5
पदार्थ -
पदार्थ = हे ( अग्ने ) = सबके नेता प्रभो ( त्वं प्रमतिः ) = आप श्रेष्ठ ज्ञानवाले और ( नः पिता असि ) = हमारे पालन पोषण करनेवाले पिता ( वयः कृत् ) = जीवनदाता हैं। ( वयं तव जामय: ) = हम सब आपके बान्धव हैं । हे ( अदाभ्य ) = किसी से न दबनेवाले परमात्मन् ( सुवीरम् ) = उत्तम वीरों से युक्त और ( व्रतपाम् ) = नियमों के रक्षक ( त्वा शतिन: ) = आपको सैकड़ों ( सहस्त्रिणः ) = हज़ारों ( राय: ) = धन ऐश्वर्य ( संयन्ति ) = प्राप्त हैं।
भावार्थ -
भावार्थ = हे परमपिता जगदीश ! आप ही सबको सुबुद्धि प्रदान करते हैं, जीवनदाता और सबके पिता भी आप ही हैं। हम सब आपके बन्धु हैं, आप किसी से दबते नहीं, महासमर्थ होकर भी अपने अटल नियमों के पालन करनेवाले हैं। सहस्रों प्रकार के ऐश्वर्यों के आप ही स्वामी हैं। हम आपकी शरण में आए हैं, हमें सुबुद्धि और अनेक प्रकार का ऐश्वर्य देकर सदा सुखी बनावें, हम सुखी होकर भी आपकी सदा भक्ति करते रहें ।
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