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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 81 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 81/ मन्त्र 6
    ऋषिः - गोतमो राहूगणः देवता - इन्द्र: छन्दः - पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः

    यो अ॒र्यो म॑र्त॒भोज॑नं परा॒ददा॑ति दा॒शुषे॑। इन्द्रो॑ अ॒स्मभ्यं॑ शिक्षतु॒ वि भ॑जा॒ भूरि॑ ते॒ वसु॑ भक्षी॒य तव॒ राध॑सः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यः । अ॒र्यः । म॒र्त॒ऽभोज॑नम् । प॒रा॒ऽददा॑ति । दा॒शुषे॑ । इन्द्रः॑ । अ॒स्मभ्य॑म् । शि॒क्ष॒तु॒ । वि । भ॒ज॒ । भूरि॑ । ते॒ । वसु॑ । भ॒क्षी॒य । तव॑ । राध॑सः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यो अर्यो मर्तभोजनं पराददाति दाशुषे। इन्द्रो अस्मभ्यं शिक्षतु वि भजा भूरि ते वसु भक्षीय तव राधसः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यः। अर्यः। मर्तऽभोजनम्। पराऽददाति। दाशुषे। इन्द्रः। अस्मभ्यम्। शिक्षतु। वि। भज। भूरि। ते। वसु। भक्षीय। तव। राधसः ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 81; मन्त्र » 6
    अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 2; मन्त्र » 1

    पदार्थ -

    पदार्थ = ( यः ) = जो ( अर्यः ) = सबका स्वामी ईश्वर ( मर्तभोजनम् ) = मनुष्यों के लिए भोजन ( परा ददाति ) = ला कर देता है ( दाशुषे ) = दानशील को विशेष कर देता है ( इन्द्र ) = वह परमेश्वर ( अस्मभ्यम् ) = हमें दे ( शिक्षतु ) = शिक्षा भी करे। ( विभजा ) = हे इन्द्र ! बांट कर दे । ( भूरि ते वसु ) = तेरे पास बहुत धन है ( भक्षीय तव राधसः ) = आपके धन को हम भोगें ।

     

     

    भावार्थ -

    भावार्थ = यदि परमेश्वर इस जगत् को रच और धारण कर अपने जीवों को अनेक पदार्थ न देता तो किसी को कुछ भी भोग सामग्री प्राप्त न हो सकती। जो यह परमात्मा वेद द्वारा मनुष्यों को शिक्षा भी न करता तो किसी को विद्या का लेश भी न प्राप्त होता । इसलिए सब संसार के पदार्थ और विद्या, बुद्धि आदि सब गुण प्रभु के ही दिए हुए हैं ।

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