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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 7 के मन्त्र
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ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 7/ मन्त्र 3
अ॒ग्निं म॑न्ये पि॒तर॑म॒ग्निमा॒पिम॒ग्निं भ्रात॑रं॒ सद॒मित्सखा॑यम् । अ॒ग्नेरनी॑कं बृह॒तः स॑पर्यं दि॒वि शु॒क्रं य॑ज॒तं सूर्य॑स्य ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒ग्निम् । म॒न्ये॒ । पि॒तर॑म् । अ॒ग्निम् । आ॒पिम् । अ॒ग्निम् । भ्रात॑रम् । सद॑म् । इत् । सखा॑यम् । अ॒ग्नेः । अनी॑कम् । बृ॒ह॒तः । स॒प॒र्य॒न् । दि॒वि । शु॒क्रम् । य॒ज॒तम् । सूर्य॑स्य ॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्निं मन्ये पितरमग्निमापिमग्निं भ्रातरं सदमित्सखायम् । अग्नेरनीकं बृहतः सपर्यं दिवि शुक्रं यजतं सूर्यस्य ॥
स्वर रहित पद पाठअग्निम् । मन्ये । पितरम् । अग्निम् । आपिम् । अग्निम् । भ्रातरम् । सदम् । इत् । सखायम् । अग्नेः । अनीकम् । बृहतः । सपर्यन् । दिवि । शुक्रम् । यजतम् । सूर्यस्य ॥ १०.७.३
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 7; मन्त्र » 3
अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 2; मन्त्र » 3
अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 2; मन्त्र » 3
पदार्थ -
पदार्थ = ( अग्निम् ) = ज्ञानस्वरूप परमात्मा को ( पितरम् मन्ये ) = मैं पिता मानता हूँ ( अग्निम् आपिम् ) = अग्नि को बन्धु ( अग्निम् भ्रातरम् ) = अग्नि को भ्राता और ( सदम् इत् सखायम् ) = सदा का ही मित्र मानता हूँ ( बृहतः अग्ने : ) = इस बड़े अग्नि के ( अनीकम् ) = बल को ( सपर्यम् ) = मैं पूजन करता हूँ । इस अग्नि के प्रभाव से ( दिवि ) = द्युलोक में ( सूर्यस्य ) = सूर्य का ( यजतम् ) = बड़ा पवित्र करनेवाला ( शुक्रम् ) = तेज चमक रहा है।
भावार्थ -
भावार्थ = परमात्मा ही हमारा सबका सच्चा पिता, माता, बन्धु, भ्राता सदा का मित्रादि सब कुछ है । संसार के पिता मातादि सम्बन्धी, इस शरीर के रहने तक सम्बन्धी हैं । इस शरीर के नष्ट होने पर इस जीव का न कोई सांसारिक पिता है, न कोई माता भ्राता आदि है। सच्चा पिता आदि तो इसका परमात्मा ही है, इसी के ज्योतिरूप बल से द्यु आदि लोकों में सूर्य, चन्द्रादि प्रकाश कर रहे हैं, इसलिए ही सत्-शास्त्रों में, परमात्मा को ज्योतियों का ज्योति वर्णन किया गया है । परमात्मा की ज्योति के बिना सूर्यादि कुछ भी प्रकाश नहीं कर सकते, इसलिए आओ ! भ्रातृगण ! हम सब उस ज्योतियों के ज्योति, जगत्पिता परमात्मा की प्रेम से स्तुति, प्रार्थना, उपासना करें, जिससे हमारा कल्याण हो ।
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