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ऋग्वेद मण्डल - 2 के सूक्त 27 के मन्त्र
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ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 27/ मन्त्र 10
ऋषिः - कूर्मो गार्त्समदो गृत्समदो वा
देवता - आदित्याः
छन्दः - स्वराट्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
त्वं विश्वे॑षां वरुणासि॒ राजा॒ ये च॑ दे॒वा अ॑सुर॒ ये च॒ मर्ताः॑। श॒तं नो॑ रास्व श॒रदो॑ वि॒चक्षे॒ऽश्यामायूं॑षि॒ सुधि॑तानि॒ पूर्वा॑॥
स्वर सहित पद पाठत्वम् । विश्वे॑षाम् । व॒रु॒ण॒ । अ॒सि॒ । राजा॑ । ये । च॒ । दे॒वाः । अ॒सु॒र॒ । ये । च॒ । मर्ताः॑ । श॒तम् । नः॒ । रा॒स्व॒ । श॒रदः॑ । वि॒ऽचक्षे॑ । अ॒श्याम॑ । आयूं॑षि । सुधि॑तानि । पूर्वा॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वं विश्वेषां वरुणासि राजा ये च देवा असुर ये च मर्ताः। शतं नो रास्व शरदो विचक्षेऽश्यामायूंषि सुधितानि पूर्वा॥
स्वर रहित पद पाठत्वम्। विश्वेषाम्। वरुण। असि। राजा। ये। च। देवाः। असुर। ये। च। मर्ताः। शतम्। नः। रास्व। शरदः। विऽचक्षे। अश्याम। आयूंषि। सुधितानि। पूर्वा॥
ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 27; मन्त्र » 10
अष्टक » 2; अध्याय » 7; वर्ग » 7; मन्त्र » 5
अष्टक » 2; अध्याय » 7; वर्ग » 7; मन्त्र » 5
पदार्थ -
पदार्थ = हे ( वरुण ) = सर्वोत्तम ! हे ( असुर ) = प्राणदात: ! ( त्वं विश्वेषाम् राजा ) = आप उन सबके राजा ( असि ) = हो ( ये च देवा: ) = जो देवता हैं ( ये च ) = और जो ( मर्ता: ) = मनुष्य हैं ( न: ) = हमें ( शतं शरदः ) = सौ बरस आयु ( विचक्षे ) = देखने के लिए ( रास्व ) = दो, ( सुधितानि ) = अच्छी स्थापन की हुई ( पूर्वा ) = मुख्य ( आयूंषि ) = आयुओं को ( अश्याम् ) = प्राप्त होवें ।
भावार्थ -
भावार्थ = हे जीवनदाता सर्वोत्तम परमात्मन्! संसार में जितने दिव्य शक्तिवाले अग्नि, वायु, सूर्य, चन्द्र, इन्द्रादि जड़ देव हैं, और चेतन विद्वान् मनुष्य भी जो देव कहलाने के योग्य हैं, इन सबके आप ही राजा, स्वामी हो, इसलिए आपसे ही माँगते हैं कि हमें आपके ज्ञान और भक्ति के लिए सौ बरस पर्यन्त जीता रक्खो, जिससे हम मुख्य पवित्र आयु को प्राप्त होकर अपना और जगत् का कुछ कल्याण कर सकें ।
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