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ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 41/ मन्त्र 12
इन्द्र॒ आशा॑भ्य॒स्परि॒ सर्वा॑भ्यो॒ अभ॑यं करत्। जे॒ता शत्रू॒न् विऽच॑र्षणिः॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्रः॑ । आशा॑भ्यः । परि॑ । सर्वा॑भ्यः । अभ॑यम् । क॒र॒त् । जेता॑ । शत्रू॑न् । विऽच॑र्षणिः ॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्र आशाभ्यस्परि सर्वाभ्यो अभयं करत्। जेता शत्रून् विऽचर्षणिः॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्रः। आशाभ्यः। परि। सर्वाभ्यः। अभयम्। करत्। जेता। शत्रून्। विऽचर्षणिः॥
ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 41; मन्त्र » 12
अष्टक » 2; अध्याय » 8; वर्ग » 9; मन्त्र » 2
अष्टक » 2; अध्याय » 8; वर्ग » 9; मन्त्र » 2
पदार्थ -
पदार्थ = ( इन्द्रः ) = परमेश्वर ( शत्रून् जेता ) = जो प्रजा-पीड़कों का जीतनेवाला और ( विचर्षणिः ) = सब को पृथक्-पृथक् देखनेवाला है ( सर्वाभ्यः आशाभ्यः ) = हमें सब दिशाओं से और ( परि ) = सब ओर से ( अभयम् करत् ) निर्भय करे ।
भावार्थ -
भावार्थ = हे सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान् जगदीश्वर ! जिस-जिस दिशा से और जिस-जिस कारण से हमें भय प्राप्त होने लगे, उस-उस दिशा से और उस उस कारण से हमें निर्भय करें। भगवन्! आपके प्रेमी भक्तों के जो शत्रु हैं उन सब को आप भली प्रकार जानते हैं, आपसे कोई भी छिपा नहीं । उन हमारी जाति और धर्म के विरोधी बाहिर के शत्रुओं से, और विशेष कर अन्दर के काम, क्रोध, लोभादि हमारे घातक शत्रुओं से हमारी रक्षा कीजिए ।
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