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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 45 के मन्त्र
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ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 45/ मन्त्र 4
ऋषिः - शंयुर्बार्हस्पत्यः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
सखा॑यो॒ ब्रह्म॑वाह॒सेऽर्च॑त॒ प्र च॑ गायत। स हि नः॒ प्रम॑तिर्म॒ही ॥४॥
स्वर सहित पद पाठसखा॑यः । ब्रह्म॑ऽवाहसे । अर्च॑त । प्र । च॒ । गा॒य॒त॒ । सः । हि । नः॒ । प्रऽम॑तिः । म॒ही ॥
स्वर रहित मन्त्र
सखायो ब्रह्मवाहसेऽर्चत प्र च गायत। स हि नः प्रमतिर्मही ॥४॥
स्वर रहित पद पाठसखायः। ब्रह्मऽवाहसे। अर्चत। प्र। च। गायत। सः। हि। नः। प्रऽमतिः। मही ॥४॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 45; मन्त्र » 4
अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 21; मन्त्र » 4
अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 21; मन्त्र » 4
पदार्थ -
पदार्थ = हे ( सखायः ) = मित्रो ! ( ब्रह्मवाहसे ) = वेद और वैदिक ज्ञान को धारण करनेवाले तथा उन वेदों को हमारे कानों तक पहुँचानेवाले परमात्मा की ( अर्चत ) = स्तुति प्रार्थना रूप पूजा करो ( च ) = और ( प्रगायत ) = उसी प्रभु का गायन करो ( हि ) = क्योंकि ( सः ) = वह जगदीश हमारा ( प्रमतिः ) = सच्चा बन्धु है अथवा वह परमात्मा ही हमारी ( मही प्रमतिः ) = बड़ी बुद्धि है ।
भावार्थ -
भावार्थ = हे ज्ञानी मित्रो ! जिस जगत्पति परमात्मा ने, हमारे कल्याण के लिए वेदों को रचा, उस ज्ञान को धारण किया, सृष्टि के आरम्भ में चार महर्षियों के अन्त:करणों में, उन चार वेदों का प्रकाश किया । वही चारों वेद, गुरु परम्परा से हमारे कानों तक पहुँचाये गये, इसलिए हमारा सबका कर्तव्य है, कि हम सब उस प्रभु की पूजा करें, वही हमारा सच्चा बन्धु है । परमेश्वर परायण होना यही हमारी बड़ी बुद्धि है। प्रभुभक्ति के बिना बुद्धिमान् पण्डित भी महामूर्ख है।
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