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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1685
ऋषिः - विश्वमना वैयश्वः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - उष्णिक्
स्वरः - ऋषभः
काण्ड नाम -
1
इ꣡न्द्र꣢ स्थातर्हरीणां꣣ न꣡ कि꣢ष्टे पू꣣र्व्य꣡स्तु꣢तिम् । उ꣡दा꣢नꣳश꣣ श꣡व꣢सा꣣ न꣢ भ꣣न्द꣡ना꣢ ॥१६८५॥
स्वर सहित पद पाठइ꣡न्द्र꣢꣯ । स्था꣣तः । हरीणाम् । न꣢ । किः꣣ । ते । पूर्व्य꣡स्तु꣢तिम् । पू꣣र्व्य꣢ । स्तु꣣तिम् । उ꣢त् । आ꣣नꣳश । श꣡व꣢꣯सा । न । भ꣣न्द꣡ना꣢ ॥१६८५॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्र स्थातर्हरीणां न किष्टे पूर्व्यस्तुतिम् । उदानꣳश शवसा न भन्दना ॥१६८५॥
स्वर रहित पद पाठ
इन्द्र । स्थातः । हरीणाम् । न । किः । ते । पूर्व्यस्तुतिम् । पूर्व्य । स्तुतिम् । उत् । आनꣳश । शवसा । न । भन्दना ॥१६८५॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1685
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 10; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 18; खण्ड » 3; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 10; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 18; खण्ड » 3; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
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पदार्थ -
शब्दार्थ = ( हरीणां स्थात: ) = हे सूर्यकिरणादि तेजों के स्थापक इन्द्र परमेश्वर । ( ते पूर्व्यस्तुतिम् ) = आपकी सनातन वेदोक्तस्तुति को कोई ( नकिः उदानंश ) = नहीं पाता ( शवसा न भन्दना ) = न तो बल से, और न तेज से ।
भावार्थ -
भावार्थ = हे परमेश्वर ! आप सूर्य चन्द्रादि सब ज्योतियों के उत्पादक और सब प्राणियों के सुख के लिए इन सूर्यादिकों की अपने-अपने स्थानों में स्थापन करनेवाले हैं। आपकी महिमा अपार है और अपार ही आपकी स्तुति है, उसका पार जानने का किस का बल वा शक्ति है, अर्थात् कोई पार नहीं पा सकता ।
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