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  • यजुर्वेद - अध्याय 12/ मन्त्र 91
    ऋषिः - वरुण ऋषिः देवता - वैद्या देवताः छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
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    अ॒व॒पत॑न्तीरवदन् दि॒वऽओष॑धय॒स्परि॑। यं जी॒वम॒श्नवा॑महै॒ न स रि॑ष्याति॒ पूरु॑षः॥९१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒व॒पत॑न्ती॒रित्य॑व॒ऽपत॑न्तीः। अ॒व॒द॒न्। दि॒वः। ओष॑धयः। परि॑। यम्। जी॒वम्। अ॒श्नवा॑महै। नः। सः। रि॒ष्या॒ति॒। पूरु॑षः। पूरु॑ष॒ इति॒ पुरु॑षः ॥९१ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अवपतन्तीरवदन्दिवऽओषधयस्परि । यञ्जीवमश्नवामहै न स रिष्याति पूरुषः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अवपतन्तीरित्यवऽपतन्तीः। अवदन्। दिवः। ओषधयः। परि। यम्। जीवम्। अश्नवामहै। नः। सः। रिष्याति। पूरुषः। पूरुष इति पुरुषः॥९१॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 12; मन्त्र » 91
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    भावार्थ -
    ( दिवः ) प्रकाशमान् सूर्य से आनेवाली किरणों के समान . ज्ञानवान वैद्य पुरुष के पास से ( अवपतन्तीः ) आती हुई ( ओषधयः ) वीर्यवती ओषधियां ( अवदन् ) मानो कहती हैं कि (यं जीवन ) जिस प्राणधारी के शरीर को भी हम ( अश्नवामहै ) व्याप लेती हैं ( सः पुरुष: ) वह देहवासी आत्मा, पुरुष ( न रिष्याति ) पीड़ित नहीं होता । इसी प्रकार (दिवः परि अवपतन्ती ) सूर्य के समान तेजस्वी एवं युद्धविजयी सेनापति के पास से जाती हुई वीर्यवती ( ओषधयः ) ताप और वीर्य को धारण करनेवाली सेनाएं कहती हैं कि ( यं जीवम् ) जिस जीवधारी प्राणी को हम ( अश्नवामहै ) अपने अधीन लेलेती हैं। ( सः पुरुषः न रिष्यति ) वह पुरुष कष्ट नहीं पाता । स्त्रियों के पक्ष में-- ( दिवः ) तेजस्वी पुरुष के पास से गर्भित होकर ( ओषधयः ) वीर्य धारण करने में समर्थ स्त्रिये (अवपतन्तीः) पतियों से संगत होकर कहती हैं ( यं जीवम् आश्नवामहै ) प्राणधारी जिस जीव को. हम गर्भ में धारण करलेती हैं ( सः पुरुषः न रिष्यति ) वह आत्मा कभी नष्ट या पीड़ित नहीं होता।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - बन्धुरृषिः । ओषधयो देवता । अनुष्टुप् गांधारः ॥

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