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  • यजुर्वेद - अध्याय 28/ मन्त्र 28
    ऋषिः - सरस्वत्यृषिः देवता - इन्द्रो देवता छन्दः - स्वराट् शक्वरी स्वरः - धैवतः
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    होता॑ यक्ष॒द् व्यच॑स्वतीः सुप्राय॒णाऽऋ॑ता॒वृधो॒ द्वारो॑ दे॒वीर्हि॑र॒ण्यया॑र्ब्र॒ह्माण॒मिन्द्रं॑ वयो॒धस॑म्।प॒ङ्क्तिं छन्द॑ऽइ॒हेन्द्रि॒यं तु॑र्य॒वाहं॒ गां वयो॒ दध॒द् व्य॒न्त्वाज्य॑स्य॒ होत॒र्यज॑॥२८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    होता॑। य॒क्ष॒त्। व्यच॑स्वतीः। सु॒प्रा॒य॒णाः। सु॒प्रा॒य॒ना इति॑ सुऽप्राय॒नाः। ऋ॒ता॒वृधः॑। ऋ॒त॒वृध॒ इति॑ ऋत॒ऽवृधः॑। द्वारः॑। दे॒वीः। हि॒र॒ण्ययी॑। ब्र॒ह्माण॑म्। इन्द्र॑म्। व॒यो॒धस॒मिति॑ वयः॒ऽधस॑म्। प॒ङ्क्तिम्। छन्दः॑। इ॒ह। इ॒न्द्रि॒यम्। तु॒र्य॒वाह॒मिति॑ तुर्य॒ऽवाह॑म्। गाम्। वयः॑। दध॑त्। व्यन्तु॑। आज्य॑स्य। होतः॑। यज॑ ॥२८ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    होता यक्षद्व्यचस्वतीः सुप्रायणाऽऋतावृधो द्वारो देवीर्हिरण्ययीर्ब्रह्माणमिन्द्रम्वयोधसम् । पङ्क्ति ञ्छन्द इहेन्द्रियन्तुर्यवाहङ्गाँवयो दधद्व्यन्त्वाज्यस्य होतर्यज ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    होता। यक्षत्। व्यचस्वतीः। सुप्रायणाः। सुप्रायना इति सुऽप्रायनाः। ऋतावृधः। ऋतवृध इति ऋतऽवृधः। द्वारः। देवीः। हिरण्ययी। ब्रह्माणम्। इन्द्रम्। वयोधसमिति वयःऽधसम्। पङ्क्तिम्। छन्दः। इह। इन्द्रियम्। तुर्यवाहमिति तुर्यऽवाहम्। गाम्। वयः। दधत्। व्यन्तु। आज्यस्य। होतः। यज॥२८॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 28; मन्त्र » 28
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    भावार्थ -
    (होता) पदाधिकारप्रदाता विद्वान् (व्यचस्वती:) विशेष रूप से और विविध प्रकारों से गमन करने और फैलाने वाली, (सु-प्र-अयनाः ) उत्तम और अच्छे पदों और अधिकारों पर स्थित, (ऋता-वृधः) बल, राष्ट्र और ऐश्वर्य को बढ़ाने वाली (देवी:) विजयशील, रक्षाकारिणी, (हिरण्ययीः) लोह के आयुधों से तेजोयुक्त, (द्वार:) युद्ध में वेग से धावन करने, प्रबल वेग से आक्रमण करने और शत्रु का वारण करने वाली सेनाओं को राष्ट्ररूप विशाल भवन में (व्यचस्वती:) विविध मार्गों से लोगों के प्रवेश निर्गम के अवकाश वाली (सुप्रायणः) सुख से गुजरने योग्य, (ऋतावृधः) ऐश्वर्यवर्धक, (हिरण्ययीः) सुवर्ण, लोहादि से भूषित, महाद्वारों के समान ( यक्षत् ) राष्ट्र में सुसंगत करे और ( वयोधसम् ) बलधारी ( ब्रह्माणम् ) महान् राष्ट्र के पोषक, विद्वान्, बलवान् ( इन्द्रम् ) सेनापति को ( यक्षत् ) नियुक्त करे । (इह) इस निमित्त (पंक्ति छन्दः इन्द्रियम् ) पंक्ति छन्द के समान ४० अक्षरों के तुल्य ४० वर्ष के अखण्ड ब्रह्मचर्य को और (तुर्यवाहं गां वयः) ४ वर्ष के वृषभ के समान बल को भी ( दधत् ) धारण करावे । वे वीर सेना और शक्तिशाली सेनापति सब (आज्यस्य व्यन्तु) राष्ट्र-ऐश्वर्य की रक्षा और भोग करें । (होत: यज) हे विद्वन् ! तू उनको योग्य पद प्रदान कर ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - स्वराट् शक्वरी । धैवतः ॥

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