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  • यजुर्वेद - अध्याय 6/ मन्त्र 13
    ऋषिः - मेधातिथिर्ऋषिः देवता - आपो देवताः छन्दः - निचृत् आर्षी अनुष्टुप्, स्वरः - गान्धारः
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    देवी॑रापः शु॒द्धा वो॑ढ्व॒ꣳ सुप॑रिविष्टा दे॒वषु॒ सुप॑रिविष्टा व॒यं प॑रि॒वे॒ष्टारो॑ भूयास्म॥१३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    देवीः॑। आ॒पः॒। शु॒द्धाः। वो॒ढ्व॒म्। सुप॑रिविष्टा॒ इति॑ सुऽप॑रिविष्टाः॒। दे॒वेषु॑। सुप॑रिविष्टा॒ इति॒ सुऽप॑रिविष्टाः॒। व॒यम्। प॒रि॒वे॒ष्टार॒ इति॑ परिऽवे॒ष्टारः॑। भू॒या॒स्म॒ ॥१३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    देवीरापः शुद्धा वोढ्वँ सुपरिविष्टा देवेषु सुपरिविष्टा वयम्परिवेष्टारो भूयास्म ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    देवीः। आपः। शुद्धाः। वोढ्वम्। सुपरिविष्टा इति सुऽपरिविष्टाः। देवेषु। सुपरिविष्टा इति सुऽपरिविष्टाः। वयम्। परिवेष्टार इति परिऽवेष्टारः। भूयास्म॥१३॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 6; मन्त्र » 13
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    भावार्थ -

     हे ( आपः) आप्तगुणों से युक्त या प्राप्त होने योग्य, या जलों के समान स्वच्छ ( देवीः) देवियो, विदुषी स्त्रियो! आप लोग ( शुद्धाः ) शुद्ध आचरण वाली होकर ( वोड् ढ्वम् ) स्वयंवर पूर्वक विवाह करो । और तुम कन्याजन ! ( देवेषु ) विद्वान्  पुरुषों में ही (सु परिविष्टाः) उत्तम रीति से उनके अर्धांङ्गिनियों के रूप में उनको प्रदान की जाओ । कन्यायें उत्तर दें--हे विद्वान् पुरुषो ! ( वयम् ) हम कन्याएं (सुं परि विष्टाः) विद्वान् पुरूषों के हाथों दी जावें। पुरुष कहें ( वयम् ) हम ( परिवेष्टारः )विवाह करने वाले ( भूयास्म ) हों । उनका पाणिग्रहण करें ॥
    राजा प्रजा पक्ष में-- राजा कहता है- हे प्रजाओ ! तुम शुद्ध रूप से आज्ञा को धारण करो और ( देवेषु) विद्वानों के आश्रय में सुख से वस कर रहो । प्रजा कहे--हम सुख से हैं । राज गण कहें --हम प्रजा जनों के उत्तम रक्षक बनें । अर्थात्  राजा प्रजा का व्यवहार स्वयंवृत पति पत्नी के समान हो ॥ शत० ३। ८ । २ ॥ 

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर -

    आपो देवताः । निचृदार्षी अनुष्टुप् । गान्धारः स्वरः ॥

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