ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 73/ मन्त्र 8
मध्व॑ ऊ॒ षु म॑धूयुवा॒ रुद्रा॒ सिष॑क्ति पि॒प्युषी॑। यत्स॑मु॒द्राति॒ पर्ष॑थः प॒क्वाः पृक्षो॑ भरन्त वाम् ॥८॥
स्वर सहित पद पाठमध्वः॑ । ऊँ॒ इति॑ । सु । म॒धु॒ऽयु॒वा॒ । रुद्रा॑ । सिस॑क्ति । पि॒प्युषी॑ । यत् । स॒मु॒द्रा । अति॑ । पर्ष॑थः । प॒क्वाः । पृक्षः॑ । भ॒र॒न्त॒ । वा॒म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
मध्व ऊ षु मधूयुवा रुद्रा सिषक्ति पिप्युषी। यत्समुद्राति पर्षथः पक्वाः पृक्षो भरन्त वाम् ॥८॥
स्वर रहित पद पाठमध्वः। ऊँ इति। सु। मधुऽयुवा। रुद्रा। सिसक्ति। पिप्युषी। यत्। समुद्रा। अति। पर्षथः। पक्वाः। पृक्षः। भरन्त। वाम् ॥८॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 73; मन्त्र » 8
अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 12; मन्त्र » 3
अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 12; मन्त्र » 3
विषय - दोनों को व्यापार, यात्रादि का उपदेश ।
भावार्थ -
भा०-हे ( मधूयुवा ) मधुर पदार्थों को परस्पर मिलाने वाले, जल, तेज और अन्न, के मिश्रण ओर विश्लेषण करने वाले हे ( रुद्रा ) दुष्ट पुरुषों को रुलाने वाले उत्तम स्त्री पुरुषो ! ( यत् ) जब ( रुद्रा ) गर्जन पूर्वक द्रवण होने वाली (पिप्युषी ) अन्नादि को बढ़ाने वाली जल-वृष्टि ( मध्वः सिषक्ति ) अन्नों को सींचती हैं, इधर आप दोनों (समुद्रा ) अन्तरिक्षों और समुद्रों को भी ( अति पर्षथः ) पार कर लिया करो, और ( पक्का पृक्षः ) पके सुमधुर अन्न ( वाम् भरन्त ) तुम दोनों को पालन पोषण करें । देश में जल वृष्टि से अन्न बढ़े, स्त्री पुरुष समुद्रों पार व्यापार करें । उत्तम खेती पकें, लोग उन अन्नों से पुष्ट होवें ।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - पौर आत्रेय ऋषिः ॥ अश्विनौ देवते ॥ छन्दः - १, २, ४, ५, ७ निचृद-नुष्टुप् ॥ ३, ६, ८,९ अनुष्टुप् । १० विराडनुष्टुप् ॥ दशर्चं सूक्तम् ॥
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