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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 4 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 4/ मन्त्र 8
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - अग्निः छन्दः - पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः

    न॒हि ग्रभा॒यार॑णः सु॒शेवो॒ऽन्योद॑र्यो॒ मन॑सा॒ मन्त॒वा उ॑। अधा॑ चि॒दोकः॒ पुन॒रित्स ए॒त्या नो॑ वा॒ज्य॑भी॒षाळे॑तु॒ नव्यः॑ ॥८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    न॒हि । ग्रभा॑य । अर॑णः । सु॒ऽशेवः॑ । अ॒न्यऽउ॑दर्यः । मन॑सा । मन्त॒वै । ऊँ॒ इति॑ । अध॑ । चि॒त् । ओकः॑ । पुनः॑ । इत् । सः । ए॒ति॒ । आ । नः॒ । वा॒जी । अ॒भी॒षाट् । ए॒तु॒ । नव्यः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    नहि ग्रभायारणः सुशेवोऽन्योदर्यो मनसा मन्तवा उ। अधा चिदोकः पुनरित्स एत्या नो वाज्यभीषाळेतु नव्यः ॥८॥

    स्वर रहित पद पाठ

    नहि। ग्रभाय। अरणः। सुऽशेवः। अन्यऽउदर्यः। मनसा। मन्तवै। ऊँ इति। अध। चित्। ओकः। पुनः। इत्। सः। एति। आ। नः। वाजी। अभीषाट्। एतु। नव्यः ॥८॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 4; मन्त्र » 8
    अष्टक » 5; अध्याय » 2; वर्ग » 6; मन्त्र » 3

    भावार्थ -
    ( अरणः ) जो सुन्दर, उत्तम रूप, एवं गुण स्वभाव वाला न हो वा जो ऋण दूर न कर सके ऐसा ( सु-शेवः ) उत्तम सुखदायक ( अन्योदर्यः ) दूसरे के पेट से उत्पन्न हुआ सन्तान ( मनसा उ ग्रभाय मन्तवै नहि ) मन से भी अपनालेने की नहीं सोचनी चाहिये । परक्षेत्र में उत्पन्न पुत्र चाहै कितना ही सुखद हो तो भी उससे पितृऋण नहीं उतरता इसलिये उसको चित्त से कभी अपना न मानना चाहिये। (अध चित्) और ( सः पुत्रः ) वह पुत्र ही ( ओकः इत् एति ) गृह को प्राप्त करता है, जिसको पुत्र बनाया जाता है वह तो गृहादि सम्पत्ति का स्वामी होता है इसलिये पराये को पुत्र बना लेने पर पराया ही घर का स्वामी होजाता है । यह अनर्थ है, इसलिये ( नः ) हमें ( नव्यः) स्तुति योग्य, उत्तम, ( वाजी ) बलवान् ( अभिषाड् ) शत्रुओं को पराजय करने वाला पुत्र ( एतु ) प्राप्त हो ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - वसिष्ठ ऋषिः ।। अग्निर्देवता ॥ छन्दः- १, ३, ४, ७ भुरिक् पंक्ति: ।। ६ स्वराट् पंक्ति: । ८, ९ पंक्तिः । २, ५ निचृत्त्रिष्टुप् । १० विराट् त्रिष्टुप् । दशर्चं सूक्तम् ।।

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