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  • अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 2/ मन्त्र 1
    सूक्त - अथर्वा देवता - रुद्रः छन्दः - परातिजागता विराड्जगती सूक्तम् - रुद्र सूक्त

    भवा॑शर्वौ मृ॒डतं॒ माभि या॑तं॒ भूत॑पती॒ पशु॑पती॒ नमो॑ वाम्। प्रति॑हिता॒माय॑तां॒ मा वि स्रा॑ष्टं॒ मा नो॑ हिंसिष्टं द्वि॒पदो॒ मा चतु॑ष्पदः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    भवा॑शर्वौ । मृ॒डत॑म् । मा । अ॒भि । या॒त॒म् । भूत॑पती॒ इति॒ भूत॑ऽपती । पशु॑पती॒ इति॒ पशु॑ऽपती । नम॑: । वा॒म् । प्रति॑ऽहिताम् । आऽय॑ताम् । मा । वि । स्रा॒ष्ट॒म् । मा । न॒: । हिं॒सि॒ष्ट॒म् । द्वि॒ऽपद॑: । मा । चतु॑:ऽपद: ॥२.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    भवाशर्वौ मृडतं माभि यातं भूतपती पशुपती नमो वाम्। प्रतिहितामायतां मा वि स्राष्टं मा नो हिंसिष्टं द्विपदो मा चतुष्पदः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    भवाशर्वौ । मृडतम् । मा । अभि । यातम् । भूतपती इति भूतऽपती । पशुपती इति पशुऽपती । नम: । वाम् । प्रतिऽहिताम् । आऽयताम् । मा । वि । स्राष्टम् । मा । न: । हिंसिष्टम् । द्विऽपद: । मा । चतु:ऽपद: ॥२.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 2; मन्त्र » 1

    भावार्थ -
    (भवाशर्वौ) हे भव ! और हे शर्व ! हे सर्वोत्पादक और हे सर्वसंहारक ! आप दोनों (मृड़तम्) हमें सुखी करो। (मा* अभियातम्) हम पर चढ़ाई मत करो। आप दोनों (भूतपती) समस्त प्राणियों के पालक और (पशुपती) समस्त पशुओं, जीवों और मुक्तात्माओं के पालक हो। (वाम् नमः) तुम दोनों को हमारा नमस्कार है। (प्रतिहिताम्) धनुष में रखी हुई और (आयताम्) डोरी से तानी हुई बाण को (मा विस्राष्टं) हम पर मत छोड़ो। (नः द्विपदः मा) हमारे दो पाये भृत्य आदि मनुष्यों को मत मारो और (चतुष्पदः मा) हमारे चौपायाँ को मत मारो। सर्वोत्पादक होने से ईश्वर भव है। सर्वसंहारक होने से वही शर्व हैं। राष्ट्र पक्ष में—प्रजा की उत्पत्ति और वृद्धि करने और सामर्थ्यवान् होने से राजा भव और दुष्टों का पीड़क होने से वही रूपान्तर में या उसका सेनापति शर्व है। हम यहां ईश्वर पक्ष का अर्थ लिखेंगे।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अथर्वा ऋषिः। रुद्रो देवता। १ परातिजागता विराड् जगती, २ अनुष्टुब्गर्भा पञ्चपदा जगती चतुष्पात्स्वराडुष्णिक्, ४, ५, ७ अनुष्टुभः, ६ आर्षी गायत्री, ८ महाबृहती, ९ आर्षी, १० पुरः कृतिस्त्रिपदा विराट्, ११ पञ्चपदा विराड् जगतीगर्भा शक्करी, १२ भुरिक्, १३, १५, १६ अनुष्टुभौ, १४, १७–१९, २६, २७ तिस्त्रो विराड् गायत्र्यः, २० भुरिग्गायत्री, २१ अनुष्टुप्, २२ विषमपादलक्ष्मा त्रिपदा महाबृहती, २९, २४ जगत्यौ, २५ पञ्चपदा अतिशक्वरी, ३० चतुष्पादुष्णिक् ३१ त्र्यवसाना विपरीतपादलक्ष्मा षट्पदाजगती, ३, १६, २३, २८ इति त्रिष्टुभः। एकत्रिंशदृचं सूक्तम्॥

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