अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 7/ मन्त्र 1
सूक्त - अथर्वा
देवता - उच्छिष्टः, अध्यात्मम्
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - उच्छिष्ट ब्रह्म सूक्त
उच्छि॑ष्टे॒ नाम॑ रू॒पं चोच्छि॑ष्टे लो॒क आहि॑तः। उच्छि॑ष्ट॒ इन्द्र॑श्चा॒ग्निश्च॒ विश्व॑म॒न्तः स॒माहि॑तम् ॥
स्वर सहित पद पाठउत्ऽशि॑ष्टे । नाम॑ । रू॒पम् । च॒ । उत्ऽशि॑ष्टे । लो॒क: । आऽहि॑त: । उत्ऽशि॑ष्टे । इन्द्र॑: । च॒ । अ॒ग्नि: । च॒ । विश्व॑म् । अ॒न्त: । स॒म्ऽआहि॑तम् ॥९.१॥
स्वर रहित मन्त्र
उच्छिष्टे नाम रूपं चोच्छिष्टे लोक आहितः। उच्छिष्ट इन्द्रश्चाग्निश्च विश्वमन्तः समाहितम् ॥
स्वर रहित पद पाठउत्ऽशिष्टे । नाम । रूपम् । च । उत्ऽशिष्टे । लोक: । आऽहित: । उत्ऽशिष्टे । इन्द्र: । च । अग्नि: । च । विश्वम् । अन्त: । सम्ऽआहितम् ॥९.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 7; मन्त्र » 1
विषय - सर्वोपरि विराजमान उच्छिष्ट ब्रह्म का वर्णन।
भावार्थ -
पूर्वोक्त ब्रह्मोदन का ही दूसरा नाम ‘उच्छिष्ट’ है। (उच्छिष्टे) समस्त जगत् के प्रलय हो जाने के अनन्तर जो शेष रह जाता है अथवा ‘नेति’ ‘नेति’ इस भावना से नाम समस्त प्रपञ्चों का निषेध कर देने पर जो सबसे अतिरिक्त ‘सत्’ शेष रह जाता है वह ‘पर-ब्रह्म’ ‘उच्छिष्ट’ है। उसमें (नाम रूपं च) अर्थात् शब्द से कहे जाने योग्य और ‘रूप’ चक्षु से देखे जाने योग्य दोनों प्रकार का जगत् (आहितम्) स्थिर है। (उच्छिष्टे लोक आहितः) यह ‘लोक’ सर्वद्रष्टा आत्मा अथवा यह सूर्यादि समस्त लोक उस उच्छिष्ट में स्थित हैं। (उच्छिष्टे इन्द्रः च अग्निः च) उस ‘उच्छिष्ट’ में इन्द्र अर्थात् वायु और अग्नि स्थित हैं और (विश्वम्) यह समस्त विश्व उसके (अन्तः) भीतर (सम् आहितम्) भली प्रकार विराजमान है।
टिप्पणी -
‘नाम रूपाणि’ इति पैप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अथर्वा ऋषिः। अध्यात्म उच्छिष्टो देवता। ६ पुरोष्णिग् बार्हतपरा, २१ स्वराड्, २२ विराट् पथ्याबृहती, ११ पथ्यापंक्तिः, १-५, ७-१०, २०, २२-२७ अनुष्टुभः। सप्तविंशर्चं सूक्तम्॥
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