अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 5/ मन्त्र 1
सूक्त - अथर्वाचार्यः
देवता - ब्रह्मगवी
छन्दः - प्राजापत्यानुष्टुप्
सूक्तम् - ब्रह्मगवी सूक्त
श्रमे॑ण॒ तप॑सा सृ॒ष्टा ब्रह्म॑णा वि॒त्तर्ते श्रि॒ता ॥
स्वर सहित पद पाठश्रमे॑ण । तप॑सा । सृ॒ष्टा । ब्रह्म॑णा । वि॒त्ता । ऋ॒ते । श्रि॒ता ॥५.१॥
स्वर रहित मन्त्र
श्रमेण तपसा सृष्टा ब्रह्मणा वित्तर्ते श्रिता ॥
स्वर रहित पद पाठश्रमेण । तपसा । सृष्टा । ब्रह्मणा । वित्ता । ऋते । श्रिता ॥५.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 5; मन्त्र » 1
विषय - ब्रह्मगवी का वर्णन।
भावार्थ -
ब्रह्मगवी = ब्रह्म = ब्राह्मण की शक्तिमयी ब्रह्मवाणी (श्रमेण) श्रम और (तपसा) तप से (सृष्टा) बनी या उत्पन्न होती है। (ब्रह्मणा) ब्रह्म-वेद और ब्रह्म = ब्रह्मज्ञान के प्राप्त करने वाले तपस्वी पुरुष द्वारा (वित्ता) जानी और प्राप्त की जाती है (ऋते श्रिता) ऋत=परम सत्यमय परमात्मा में आश्रित रहती हैं।
टिप्पणी -
ब्रह्मगवी का स्वरूप देखो [ अथर्व० का० ५ सू० १८,१९]।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अथर्वाचार्य ऋषिः। सप्त पर्यायसूक्तानि। ब्रह्मगवी देवता। तत्र प्रथमः पर्यायः। १, ६ प्राज्यापत्याऽनुष्टुप, २ भुरिक् साम्नी अनुष्टुप्, ३ चतुष्पदा स्वराड् उष्णिक्, ४ आसुरी अनुष्टुप्, ५ साम्नी पंक्तिः। षडृचं प्रथमं पर्यायसूक्तम्॥
इस भाष्य को एडिट करें