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अथर्ववेद > काण्ड 15 > सूक्त 10

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  • अथर्ववेद - काण्ड 15/ सूक्त 10/ मन्त्र 1
    सूक्त - अध्यात्म अथवा व्रात्य देवता - त्रिपदा साम्नी बृहती छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त

    तद्यस्यै॒वंवि॒द्वान्व्रात्यो॒ राज्ञोऽति॑थिर्गृ॒हाना॒गच्छे॑त् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तत् । यस्य॑ । ए॒वम् । वि॒द्वान् । व्रात्य॑: । राज्ञ॑: । अति॑थि: । गृ॒हान् । आ॒ऽगच्छे॑त् ॥१०.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तद्यस्यैवंविद्वान्व्रात्यो राज्ञोऽतिथिर्गृहानागच्छेत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तत् । यस्य । एवम् । विद्वान् । व्रात्य: । राज्ञ: । अतिथि: । गृहान् । आऽगच्छेत् ॥१०.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 10; मन्त्र » 1

    भावार्थ -
    (तत्) तो (यस्य राज्ञः) जिस राजा के (गृहान्) घरों पर (एवं विद्वान्) इस प्रकार के व्रात्य प्रजापति के स्वरूप को साक्षात् करने वाला (व्रात्यः) व्रात्य प्रजापति (अतिथिः) अतिथि होकर (आगच्छेत्) आवे वह (एनम्) इस विद्वान् 'व्रातपति’ लोकपति प्रजापति, आचार्य को (आत्मनः) अपने लिये (श्रेयांसम्) अति अधिक कल्याणकारी अतिश्रेष्ठ मान कर (मानयेत्) उसका आदर करे (तथा) वैसा करने से वह (क्षत्राय) क्षेत्र अर्थात् क्षात्रबल या राज्य का (न आ वृश्चते) अपराध नहीं करता (तथा) उसी प्रकार वह (राष्ट्राय न आ वृश्चते) अपने राष्ट्र का भी अपराध नहीं करता। विद्वान् अतिथि की सेवा कर के राजा अपने क्षात्र तेज, बल और राज्य और राष्ट्र को हानि नहीं पहुंचाता।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - १ द्विपदासाम्नी बृहती, २ त्रिपदा आर्ची पंक्तिः, ३ द्विपदा प्राजापत्या पंक्तिः, ४ त्रिपदा वर्धमाना गायत्री, ५ त्रिपदा साम्नी बृहती, ६, ८, १० द्विपदा आसुरी गायत्री, ७, ९ साम्नी उष्णिक्, ११ आसुरी बृहती। एकादशर्चं सूक्तम्॥

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