अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 14/ मन्त्र 1
सं वो॑ गो॒ष्ठेन॑ सु॒षदा॒ सं र॒य्या सं सुभू॑त्या। अह॑र्जातस्य॒ यन्नाम॒ तेना॑ वः॒ सं सृ॑जामसि ॥
स्वर सहित पद पाठसम् । व॒: । गो॒ऽस्थेन॑ । सु॒ऽसदा॑ । सम् । र॒य्या । सम् । सुऽभू॑त्या । अह॑:ऽजातस्य । यत् । नाम॑ । तेन॑ । व॒: । सम् । सृ॒जा॒म॒सि॒॥१४.१॥
स्वर रहित मन्त्र
सं वो गोष्ठेन सुषदा सं रय्या सं सुभूत्या। अहर्जातस्य यन्नाम तेना वः सं सृजामसि ॥
स्वर रहित पद पाठसम् । व: । गोऽस्थेन । सुऽसदा । सम् । रय्या । सम् । सुऽभूत्या । अह:ऽजातस्य । यत् । नाम । तेन । व: । सम् । सृजामसि॥१४.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 14; मन्त्र » 1
विषय - गौओं और प्रजाओं की वृद्धि का उपदेश ।
भावार्थ -
गौओं और गोपति के दृष्टान्त से राजा को प्रजाओं की और गोपति को गौओं की वृद्धि का उपदेश है । हम लोग हे गौवो ! (वः) तुम को (सुपदा गोष्ठेन) सुख से बैठने, जमने, जम कर रहने योग्य ‘गोष्ठ’, गोशाला में रख कर (सं सृजामसि) सुख प्राप्त करावें, पालें, (रय्या सं) पुष्टिकारक पदार्थों से और (सुभूत्या) उत्तम भूति, सन्तान और धन आदि सम्पत्ति से तुम को (सं) सजावें। और (यत्) जो (अहर्जातस्य) प्रतिदिन का जो (नाम) परिचय है (तेन) उससे भी (वः) तुम को (सं सृजामसि) पालन करें।
इसी प्रकार राजा प्रजा के लिये उत्तम नगर, पुष्टिदायक अन्न, उत्तम सम्पत्ति और दैनिक परिचय और इनाम और पदवियों से सुशोभित करे ।
टिप्पणी -
(द्वि०) ‘रय्या सं सपुष्ट्या’ इति पैप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ब्रह्मा ऋषिः । गावो देवताः उत गोष्ठो देवता। १, ६ अनुष्टुभः । ६ आर्षी त्रिष्टुप् । षडृर्चं सूक्तम्।
इस भाष्य को एडिट करें