अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 18/ मन्त्र 1
इ॒मां ख॑ना॒म्योष॑धिं वी॒रुधां॒ बल॑वत्तमाम्। यया॑ स॒पत्नीं॒ बाध॑ते॒ यया॑ संवि॒न्दते॒ पति॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒माम् । ख॒ना॒मि॒ । ओष॑धिम् । वी॒रुधा॑म् । बल॑वत्ऽतमाम् । यया॑ । स॒ऽपत्नी॑म् । बाध॑ते । यया॑ । स॒म्ऽवि॒न्दते॑ । पति॑म् ॥१८.१॥
स्वर रहित मन्त्र
इमां खनाम्योषधिं वीरुधां बलवत्तमाम्। यया सपत्नीं बाधते यया संविन्दते पतिम् ॥
स्वर रहित पद पाठइमाम् । खनामि । ओषधिम् । वीरुधाम् । बलवत्ऽतमाम् । यया । सऽपत्नीम् । बाधते । यया । सम्ऽविन्दते । पतिम् ॥१८.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 18; मन्त्र » 1
भावार्थ -
इन्द्राणी ऋषिका । उपनिषत्सपत्नीबाधनं देवता । उपनिषद् ब्रह्मविद्या की सपत्नी अविद्या है उसको बाधन=विनाश करने का उपदेश व्यावहारिक सपत्नी के विरोध के दृष्टान्त से स्पष्ट करते हैं। (इमां) इस (ओषधिं) पाप दहन करने के सामर्थ्य वाली (वीरुधां) नाना प्रकार से या विशेष सामर्थ्य से अज्ञान की विरोधिनी, स्वतः उत्पन्न होनेहारी (बलवत्तमाम्) अति वीर्यवती ओषधि के समान इस ऋतम्भरा प्रज्ञा को (खनामि) खोदता हूं, योगसाधनों से प्राप्त करता हूं, (यया) जिससे (सपत्नीं) अपने पति हृदयेश्वर आत्मा पर अपना अधिकार जमाने वाली अविद्या को (बाधते) विनाश किया जाता है और (यया) जिसके बल पर (पतिं) उस पालक प्रभु परमेश्वर को (सं-विन्दते) प्राप्त किया जाता है ।
दृष्टान्त में सर्वांग साम्य आवश्यक नहीं है। यहां केवल जिस प्रकार सौत को सौत परे हटाती है उसी प्रकार अविद्या को विद्या परे हटावे, यही साम्य है ओषधि के प्रयोगांश में समानता नहीं, प्रत्युत बाधनांश में समानता है।
टिप्पणी -
ऋग्वेदे इन्द्राणी ऋषिः। उपनिषत्सपत्नीबाधनं देवता। १-‘वीरुधं’ इति पाठभेदः ऋ०। (च०) ‘कुणुने केवलं पतिम्’ इति पैप्प० सं० ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अथर्वा ऋषिः । वनस्पतिर्देवता । १-३, ५ अनुष्टुभः । ४ चतुष्पदा अनुष्टुप्-गर्भा उष्णिग् । १ उष्णिग् गर्भा पथ्यापंक्तिः। षडृचं सूक्तम्॥
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