Loading...
अथर्ववेद > काण्ड 3 > सूक्त 30

काण्ड के आधार पर मन्त्र चुनें

  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 30/ मन्त्र 1
    सूक्त - अथर्वा देवता - चन्द्रमाः, सांमनस्यम् छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - सांमनस्य सूक्त

    सहृ॑दयं सांमन॒स्यमवि॑द्वेषं कृणोमि वः। अ॒न्यो अ॒न्यम॒भि ह॑र्यत व॒त्सं जा॒तमि॑वा॒घ्न्या ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सऽहृ॑दयम् । सा॒म्ऽम॒न॒स्यम् । अवि॑ऽद्वेषम् । कृ॒णो॒मि॒ । व॒: । अ॒न्य: । अ॒न्यम् । अ॒भि । ह॒र्य॒त॒ । व॒त्सम् । जा॒तम्ऽइ॑व । अ॒घ्न्या ॥३०.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सहृदयं सांमनस्यमविद्वेषं कृणोमि वः। अन्यो अन्यमभि हर्यत वत्सं जातमिवाघ्न्या ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सऽहृदयम् । साम्ऽमनस्यम् । अविऽद्वेषम् । कृणोमि । व: । अन्य: । अन्यम् । अभि । हर्यत । वत्सम् । जातम्ऽइव । अघ्न्या ॥३०.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 30; मन्त्र » 1

    भावार्थ -
    मिल कर एकचित्त होकर परस्पर प्रेम से रहने का उपदेश करते हैं। मैं प्रभु (वः) तुम सब को (सहृदयं) एक हदय वाला (सांमनस्यं) एक चित्त वाला, (अविद्वषं) तथा परस्पर द्वेषभाव से रहित (कृणोमि) करता हूं । हे गृहस्थ के लोगो ! (जातं वत्सं अध्या इव) जिस प्रकार उत्पन्न हुए बच्छे के प्रति प्रेम से खिंचकर गाय दौड़ी हुई आती है उस प्रकार (अन्यः अन्यम् अभि हर्यत) एक दूसरे के पास, मिलने के लिये प्रेम से खिंचकर जाओ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अथर्वा ऋषिः। चन्द्रमाः सामनस्यञ्च देवता। १-४ अनुष्टुभः। ५ विराड् जगती। ६ प्रस्तार पंक्तिः। ७ त्रिष्टुप्। सप्तर्चं सूक्तम्॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top