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अथर्ववेद > काण्ड 3 > सूक्त 7

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  • अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 7/ मन्त्र 1
    सूक्त - भृग्वङ्गिराः देवता - हरिणः छन्दः - भुरिगनुष्टुप् सूक्तम् - यक्ष्मनाशन सूक्त

    ह॑रि॒णस्य॑ रघु॒ष्यदोऽधि॑ शी॒र्षणि॑ भेष॒जम्। स क्षे॑त्रि॒यं वि॒षाण॑या विषू॒चीन॑मनीनशत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ह॒रि॒णस्य॑ । र॒घु॒ऽस्यद॑: । अधि॑ । शी॒र्षाणि॑ । भे॒ष॒जम् । स: । क्षे॒त्रि॒यम् । वि॒ऽसान॑या । वि॒षू॒चीन॑म् । अ॒नी॒न॒श॒त् ॥७.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    हरिणस्य रघुष्यदोऽधि शीर्षणि भेषजम्। स क्षेत्रियं विषाणया विषूचीनमनीनशत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    हरिणस्य । रघुऽस्यद: । अधि । शीर्षाणि । भेषजम् । स: । क्षेत्रियम् । विऽसानया । विषूचीनम् । अनीनशत् ॥७.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 7; मन्त्र » 1

    भावार्थ -
    क्षेत्रिय व्याधि क्षय, कुष्ठ, अपस्मार आदि के निवारण का उपाय बतलाते हैं—(रघुष्यदः) अति वेग से दौड़ने वाले (हरिणस्य) हरिण के (शीर्षणि अधि) सिर के ऊपर जो सींग हैं वह (भेषजम्) रोगों को दूर करने वाला पदार्थ है । (सः) वह विद्वान् चिकित्सक (विषाणया) सींग के द्वारा ही (विषूचीनम्) नाना प्रकार के कष्ट देने वाले रोगों को (अनीनशत्) विनाश करता है ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - भृग्वंगिरा ऋषिः । यक्ष्मनाशनो देवता । १-५, ७ अनुष्टुभः । ६ भुरिक् । सप्तर्चं सूक्तम् ॥

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