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अथर्ववेद > काण्ड 6 > सूक्त 117

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  • अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 117/ मन्त्र 1
    सूक्त - कौशिक देवता - अग्निः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - आनृण्य सूक्त

    अ॑प॒मित्य॒मप्र॑तीत्तं॒ यदस्मि॑ य॒मस्य॒ येन॑ ब॒लिना॒ चरा॑मि। इ॒दं तद॑ग्ने अनृ॒णो भ॑वामि॒ त्वं पाशा॑न्वि॒चृतं॑ वेत्थ॒ सर्वा॑न् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒प॒ऽमित्य॑म् । अप्र॑तीत्तम् । यत् । अस्मि॑ । य॒मस्य॑। येन॑ । ब॒लिना॑ । चरा॑मि । इ॒दम् । तत् । अ॒ग्ने॒ । अ॒नृ॒ण: । भ॒वा॒मि॒ । त्वम् । पाशा॑न् । वि॒ऽचृ॒त॑म् । वे॒त्थ॒ । सर्वा॑न् ॥११७.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अपमित्यमप्रतीत्तं यदस्मि यमस्य येन बलिना चरामि। इदं तदग्ने अनृणो भवामि त्वं पाशान्विचृतं वेत्थ सर्वान् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अपऽमित्यम् । अप्रतीत्तम् । यत् । अस्मि । यमस्य। येन । बलिना । चरामि । इदम् । तत् । अग्ने । अनृण: । भवामि । त्वम् । पाशान् । विऽचृतम् । वेत्थ । सर्वान् ॥११७.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 117; मन्त्र » 1

    भावार्थ -
    ऋण परिशोध का उपदेश करते हैं—(यद्) जिस (अपमित्यम्) अपमान योग्य या प्रदान करने योग्य (अप्रतीत्तं) न चुकाये हुए धन को (अस्मि) लेता हूं और (यमस्य) नियन्ता राजा के राज्य में (येन) जिस (बलिना) बलि, कर से (चरामि) मैं स्वयं अपना भोजन प्राप्त करूं (इदं तत्) उसको मैं यह हे (अग्ने) राजन् ! तेरे समक्ष ही चुका दूं और इस प्रकार उससे मैं (अनृणः) ऋणरहित (भवामि) हो जाऊँ। हे अग्ने ! राजन् ! (त्वं) तू ही (सर्वान् पाशान्) सब बन्धनों को (विचृतम्) नाना प्रकार से बांधना और खोलना भी (वेत्थ) जानता है। राजा की साक्षी में जिसका ऋण देना हो दो और राजा का कर भी चुकाओ, नहीं तो वह न चुकाने वाले कर्जदार को नाना प्रकार के दण्ड देगा।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अनृणकामः कौशिक ऋषिः। अग्नि र्देवता। त्रिष्टुभः। तृचं सूक्तम्॥

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