Sidebar
अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 118/ मन्त्र 1
यद्धस्ता॑भ्यां चकृ॒म किल्बि॑षाण्य॒क्षाणां॑ ग॒त्नुमु॑प॒लिप्स॑मानाः। उ॑ग्रंप॒श्ये उ॑ग्र॒जितौ॒ तद॒द्याप्स॒रसा॒वनु॑ दत्तामृ॒णं नः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । हस्ता॑भ्याम् । च॒कृ॒म । किल्बि॑षाणि । अ॒क्षाणा॑म् । ग॒त्नुम् । उ॒प॒ऽलिप्स॑माना: । उ॒ग्रं॒प॒श्ये । इत्यु॑ग्र॒म्ऽप॒श्ये । उ॒ग्र॒ऽजितौ॑ । तत् । अ॒द्य । अ॒प्स॒रसौ॑ । अनु॑ । द॒त्ता॒म् । ऋ॒णम् । न॒: ॥११८.१॥
स्वर रहित मन्त्र
यद्धस्ताभ्यां चकृम किल्बिषाण्यक्षाणां गत्नुमुपलिप्समानाः। उग्रंपश्ये उग्रजितौ तदद्याप्सरसावनु दत्तामृणं नः ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । हस्ताभ्याम् । चकृम । किल्बिषाणि । अक्षाणाम् । गत्नुम् । उपऽलिप्समाना: । उग्रंपश्ये । इत्युग्रम्ऽपश्ये । उग्रऽजितौ । तत् । अद्य । अप्सरसौ । अनु । दत्ताम् । ऋणम् । न: ॥११८.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 118; मन्त्र » 1
विषय - ऋण के आदान और शेध की व्यवस्था।
भावार्थ -
कुमार्ग में या जूआ आदि व्यसनों में ऋण लेने और देने की व्यवस्था करते हैं—(अक्षाणाम्) अक्ष = जुए के पासों को (गत्नुम्) क्रीड़ा को अथवा उनके द्वारा प्राप्त होने वाले अर्थलाभों को (उपलिप्समानाः) प्राप्त करने का लोभ करते हुए (हस्ताभ्यम्) हाथों से (यत्) जब (किल्विषाणि) पाप (चकृम) करें (तत्) तब (अद्य) तत्काल ही (उग्रं पश्ये) उग्र, उद्यत दण्ड होकर देखने वाली और (उग्रजितौ) उग्रता से सब को वश करने वाली (अप्सरसौ) दोनों राजा और प्रजा की संस्थायें (नः) हमारे (ऋणम्) ऋण, अर्थदण्ड को (अनु-दत्ताम्) हम से दिलावें। अर्थात् धन के लोभ से जब जब हम जूआ आदि कार्यों में हाथ डालें तब तब प्रजा की व्यवस्थापक संस्थायें हमें पकड़ लें और दण्डपूर्वक हमारा ऋण हमसे चुकवावें। प्रजा पर निगरानी करने वाली दो संस्थाएं एक उग्रपश्या दूसरी उग्रजित्, एक. C. I. D. ‘क्रिमिनल इनवेस्टिगेटिंग डिपार्टमेंट’ पापियों को खोज खोज कर पता लगाने वाली, दूसरी ‘उग्रजित्’ पोलिस, अपराधियों को खोज खोज कर दण्ड देने वाली। ये दोनों संस्थाएं प्रजा में (अप्सरसौ) गुप्त रूप से विचरें, अपराधियों का पता लगावें और उनको दण्ड दें। यहां सायण, ग्रीफिथ और क्षेमकरण तीनों भाष्यकारों के भाष्य अस्पष्ट हैं। इसी विषय का स्पष्टीकरण अगले मन्त्र में देखो।
टिप्पणी -
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अनृणकामः कौशिक ऋषिः। अग्निर्देवता त्रिष्टुभः। तृचं सूक्तम्॥
इस भाष्य को एडिट करें