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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 120/ मन्त्र 1
सूक्त - कौशिक
देवता - अन्तरिक्षम्, पृथिवी, द्यौः, अग्निः
छन्दः - जगती
सूक्तम् - सुकृतलोक सूक्त
यद॒न्तरि॑क्षं पृथि॒वीमु॒त द्यां यन्मा॒तरं॑ पि॒तरं॑ वा जिहिंसि॒म। अ॒यं तस्मा॒द्गार्ह॑पत्यो नो अ॒ग्निरुदिन्न॑याति सुकृ॒तस्य॑ लो॒कम् ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । अ॒न्तरि॑क्षम् ।पृ॒थि॒वीम् । उ॒त॒ ।द्याम् । यत् । मा॒तर॑म् । पि॒तर॑म् । वा॒ । जि॒हिं॒सि॒म । अ॒यम् । तस्मा॑त् । गार्ह॑ऽपत्य: । न॒: । अ॒ग्नि: । उत् । इत् । न॒या॒ति॒ । सु॒ऽकृ॒तस्य॑ । लो॒कम् ॥१२०.१॥
स्वर रहित मन्त्र
यदन्तरिक्षं पृथिवीमुत द्यां यन्मातरं पितरं वा जिहिंसिम। अयं तस्माद्गार्हपत्यो नो अग्निरुदिन्नयाति सुकृतस्य लोकम् ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । अन्तरिक्षम् ।पृथिवीम् । उत ।द्याम् । यत् । मातरम् । पितरम् । वा । जिहिंसिम । अयम् । तस्मात् । गार्हऽपत्य: । न: । अग्नि: । उत् । इत् । नयाति । सुऽकृतस्य । लोकम् ॥१२०.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 120; मन्त्र » 1
विषय - पापों का त्याग कर उत्तम लोक को प्राप्त होना।
भावार्थ -
(यद्) यदि हम (अन्तरिक्षम्) अन्तरिक्ष, अन्तरिक्षगत प्राणियों को, (पृथिवीम्) पृथिवी, पृथिवीगत प्राणियों को (द्याम्) लोक, द्युलोक के विद्वान् प्राणियों को, और (यत् मातरम्) जो माता (वा पितरम्) या पिता, अपने परिपालक को (जिहिंसिम) मारें, पीड़ा दें, तो (गार्हपत्यः अग्निः) गार्हपत्य अग्नि, गृहों का स्वामी नेता या भूलोक का स्वामी राजा या परमेश्वर (नः) हमें (तस्मात्) उस बुरे कार्य से (इत्) अवश्य (उत् नयाति) उन्नत करे और (सुकृतस्य लोकम्) सुकृत, उत्तम पुण्यलोक में प्राप्त करावे।
पृथिवी, आकाश और उससे भी ऊँचे द्यौः में विचरने वाले या प्राणियों का नाश करना वा पृथिवी, अन्तरिक्ष, वायु और सूर्य जैसे उपकारक पदार्थों का नाश करना अर्थात् इसका यथोचित उपयोग न लेकर इन्हें अन्यथा सिद्ध सा जानना, और माता पिता को दुःख देना यह जंगलीपन का जीवन है। घर बसा कर उसमें अग्निस्थापन करना, ज्ञानाग्नि के स्थापन एवं अपने राजा के स्थापन का प्रतिनिधि है, अर्थात् मनुष्य बर्बरता के जीवन से उठ कर गृहपति, सरकार या राजशासन का स्थापन करे और उन्नत जीवन व्यतीत करे।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - कौशिक ऋषिः। मन्त्रोक्ता देवता। १ जगती। २ पंक्ति:। ३ त्रिष्टुप्। तृचं सूक्तम्॥
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